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ज्ञान और कर्म। [द्वितीय भाम wwwmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmmm
क्षमाशीलता कायरपन नहीं है। जब तक जनसाधारणकी यह धारणा अथवा संस्कार परिवर्तित न होगा, . तब तक क्षमाशीलकी यही दशा होगी। किन्तु जो आदमी अपकार करनेवालेके अमार्जनीय अत्याचारको क्षमा कर सकता है, वह सर्वसाधारणके मार्जनीय अनादरको अनायास ही सह सकता है। अगर कोई कहे कि उसकी वह क्षमा अन्याय है, और अपकार करनेवालेको दण्ड देना ही कर्तव्य है, तो उसका अखण्डनीय उत्तर भी है । अपकार करनेवालेको दण्ड देना आशु-प्रतिकारका उपायमात्र है, और वह जिसका अपकार हुआ है उसका प्रेय है। उसके द्वारा अपकार करनेवाले और अपकार करनेकी प्रवृत्तिके परवश लोग डर सकते हैं, और कुछ समय तक अपकर्मसे निवृत्त रह सकते हैं । किन्तु उसके द्वारा उनका संशोधन या उनकी उक्त कुप्रवृत्तिका दमन नहीं हो सकता, उनके द्वारा होनेवाले अनिष्टकी संभावनाका मूलोच्छेद नहीं हो सकता और उनके दण्डसे अपकृत व्यक्ति और जनसाधारणके मनमें प्रतिहिंसा आदि कुप्रवृत्तियाँ प्रश्रय पा सकती हैं। पक्षान्तरमें, क्षमाशील पुरुषका कार्य उसके लिए निश्चित रूपसे हितकर है, और सर्वसाधारण तथा अपकार करनेवाले के लिए भी उसकी हितकारिता थोड़ी नहीं है। क्षमाशीलताका उज्ज्वल दृष्टान्त ही कान्यके अन्याय प्रशंसावादको, सर्वसाधारणके कुसंस्कारको
और अपकार करनेवालेके.कठिन हृदयको परिवर्तित करनेका एकमात्र निश्चित उपाय है। उस परिवर्तनकी गति धीमी, किन्तु ध्रुव है । और ऊपर जो काव्यकी उक्ति और सर्वसाधारणके संस्कारकी बात कही गई है वह मनुष्यजातिके बाल्यकालके एक प्रकारके सत् उद्यमका व्यापार है, मनुष्यका चिरन्तन धर्म नहीं है । एक समय साहित्यकी और सर्वसाधारणकी उक्ति यह थी कि अपमान करनेवालेके रक्तके सिवा और किसी तरह भी अपमानका कलंक धोया रहीं जा सकता। किन्तु इस समय ऐसी बात कोई नहीं कहेगा। बल्कि मशः लोग यही कहेंगे कि इस बातका इतना गौरव मनुष्यजातिके लिए क प्रकारका कलंक है।
ऊपर जो कहा गया वह केवल निरीह निरुत्साह दुर्बल भारतीयोंकी ही बात हीं है। यह बात उद्यमशील बलविक्रमशाली पाश्चात्य प्रदेशमें भी यह मत निनीय होताजा रहा है कि राजशासनसे दण्डित (अपराधी) को भी उसे