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दूसरा अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण ।
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शास्ति देनेके खयालसे दण्ड न देना चाहिए, दण्ड वह होना चाहिए जो दण्डि• तके संशोधनके लिए उपयुक्त हो। एक पाश्चात्य पण्डितकी कल्पनामें हमें इसका भी एक अति उज्ज्वल दृष्टान्त देख पड़ता है कि क्षमाशीलताके फलसे महापापाचारीका भी संशोधन हो सकता है। सुप्रसिद्ध विक्टर- गोके लिखे हुए ले-मिजरेब्लस ( Les Miserables) नामक प्रसिद्ध उपन्यासका नायक जीनबाल्जेन्स ( Jean Taljeans ) वही दृष्टान्त है।
अतएव अनिष्टकारीका अनिष्ट करना, केवल ऊपर कहे हुए संकटकी जगह-जहाँ अतिगुरुतर अपुरणीय क्षतिके निवारणके लिए दूसरा उपाय नहीं है वहाँ, न्यायसंगत कहा जा सकता है।
२-पर-हितके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना कहाँतक न्यायसंगत है, इस प्रश्नका उत्तर पहले प्रश्नकी आलोचनाके बाद अपेक्षाकृत सहज सा जान पड़ेगा।
आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना जहाँ तक न्यायसंगत है, परहितके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना कमसे कम वहाँतक तो अवश्य ही न्यायसंगत होगा। आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना जहाँतक न्यायसंगत है, सो ऊपर कह दिया गया है । बाकी रही यह बात कि आत्मरक्षाके लिए जहाँतक जाया जाता है, परहितके लिए उसकी अपेक्षा कुछ अधिक आगे बढ़ा जा सकता है कि नहीं, और, इस बातके बारेमें कहा जा सकता है कि जिस जगह अन्यकी क्षतिकी आशंका होगी उस जगह मेरा निश्चेष्ट रहना उचित न होगा। इस विषयमें वक्तव्य यह है कि जिस क्षतिकी आशंका हो वह अगर अपूरणीय हो, और उसके रोकनेका और उपाय भी न हो, तो उसके निवारणार्थ, जैसे आत्मरक्षाके लिए वैसे ही परहितके लिए भी, अनिष्टकारीका अनिष्ट करना न्यायानुमोदित है। किन्तु उसके निवारणका दूसरा उपाय अगर हो, तो उसी पर अमल करना चाहिए । और, अगर वह क्षति पूरणीय हो तो राजाके द्वारा स्थापित विचारालय ( अदालत ) में क्षतिपूर्तिकी प्रार्थना करना ही उचित है। राज्यके अर्थात् प्रजासमष्टि या किसी खास प्रजाके हितके लिए राजा या राजपुरुषके द्वारा अनिष्टकारीका अनिष्ट होना कहाँतक न्यायसंगत है ?—यह प्रश्न भी यहाँपर उठता है । यह राजनीतिक आलोचनाका विषय है। यहाँपर इस सम्बन्धमें इतना कहना ही यथेष्ट होगा