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दूसरा अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण ।
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और अनिष्टकारीको चोट पहुंचाना सुनीतिसंगत नहीं है। बहुत लोग कहते हैं, अनिष्ट या अपमान करनेवाले मनुष्यका शासन अपने हाथसे न कर सकनेसे उसका समुचित प्रतिशोध या मनुष्योचित कार्य नहीं होता, और जो वैसा नहीं कर सकता वह कायर है, उसे आत्मगौरवका बोध नहीं है। अगर कोई अपने अनिष्टके भयसे अनिष्टकारीको दण्ड न दे, तो उसके लिए यह बात कही जा सकती है। किन्तु तथापि यह कथन संपूर्ण रूपसे न्यायसंगत नहीं है । अपने अनिष्टका निवारण कर्तव्य है, किन्तु ऊपर कहे गये संकटकी जगहको छोड़ कर अन्य किसी जगह पराया अनिष्ट करना सुनीतिसंगत नहीं है। अनिष्ट या अपमान करनेवालेके ऊपर क्रोध होना मनुष्यके लिए स्वभावसिद्ध है, और उसी क्रोधके वेगमें अनिष्टकारी पर आक्रमण करनेसे शारीरिक बलका परिचय मिल सकता है, लेकिन मानसिक बलका विशेष परिचय नहीं मिलता। बल्कि उस क्रोधको दबा देना ही विशेष मानसिक बलका परिचय देता है। जो व्यक्ति अन्याय रूपसे अन्यका अनिष्ट या अपमान करता है वह मनुष्य नामधारी होने पर भी पशुप्रकृति है, और बाघ-भालू-पागल सियारकुत्ते आदिको लोग जैसे बरा जाते हैं वैसे ही वह भी त्याज्य है। अतएव उसे दण्ड न देकर अगर कोई चला जाय तो उसमें उस मनुष्य नामधारी पशु प्रकृति मनुष्यके लिए आत्मगौरव या स्पर्धाकी कोई बात नहीं है। मगर हाँ, ऐसा करना उसे कुछ प्रश्रय देना ( अर्थात् उसकी हिम्मत बढ़ाना) है, यह बात अवश्य स्वीकार करनी पड़ेगी। किन्तु साथ ही यह भी स्वीकार करना पड़ेगा कि जनसाधारणकी विवेचनाकी त्रुटि ही उस प्रश्रयका कारण है । बलके और साहसके कार्य में स्वार्थत्यागका कुछ संसर्ग रहता है, और उसके द्वारा बहुधा लोगोंका हितसाधन होता है। इसी कारण उस तरहके कार्य वीरोचित कहकर काव्यमें वर्णन किये जाते हैं, और जन साधारण भी उन्हें वीरोचित जानकर उनका आदर करते हैं । जो मनुष्य वैसे कार्य करनेसे विमुख होता है उसकी निन्दा की जाती है और अनादर होता है । अतएव अगर कोई क्षमा करके अपकार करनेवालेको दण्ड न दे, तो केवल दो-ही चार आदमी उसकी प्रशंसा कर सकते हैं, अधिकांश लोग उसको अनादरकी ही दृष्टि से देखेंगे, और उसका वह अनादर अपकार करनेवालेके लिए प्रश्रयका कारण होगा।