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[ द्वितीय भाग
ज्ञान और कर्म ।
अवचितं कार्यमतित्थ्यं गृहमागते । छेत्तुमप्यागते छायां नोपसंहरते द्रुमः ॥ ( महाभारत, शान्तिपर्व ५५२८ )
[ अर्थात् शत्रु भी घर में अगर आवे तो उसका आदर सत्कार करना उचित है | देखो, जो कुल्हाड़ी लेकर काटने आता है, उस परसे भी वृक्ष अपनी छायाको हटा नहीं लेता । ]
और शैल- शिखर परसे ईसाका यह उपदेश कि ' अनिष्टका प्रतिरोध न
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करना ( १ ) स्मरण करना चाहिए ।
जान से मार डालने के लिए उद्यत आततायीको आत्मरक्षाके लिए मार डालना प्रायः सभी दशोंकी सब समयकी दण्डविधि द्वारा अनुमोदित है । मनु भगवानने भी कहा है
नातितायिवधे दोषो हन्तुर्भवति कश्चन ।
( मनु | ८|३५१ ) [ अर्थात् आततायीको मार डालनेमें मारनेवालेको कुछ भी दोष नहीं होता । ]
भारतकी वर्तमान दण्डविधि भी यही बात कहती है । लेकिन यह स्मरण रखना होगा कि दण्डविधिका मूल उद्देश समाजकी रक्षा करना है, नीतिशिक्षा देना नहीं है । अतएव दण्डविधिकी बात सब जगह सुनीतिके द्वारा नहीं भी अनुमोदित हो सकती है ।
प्राणनाश या उसके तुल्य और कोई गुरुतर और अपूरणीय क्षतिके निकट होनेकी जहाँ आशंका हो उस जगह उस क्षतिको रोकनेके लिए अनिष्टकारीका जितना अनिष्ट करना आवश्यक हो उतना अनिष्ट करना शायद न्यायानु
त ही कहा जायगा । जहाँ क्षतिको रोकनेका दूसरा उपाय है वहीं, और जहाँ थोड़ी क्षतिकी आशंका हो वहाँ, अनिष्टकारीका अनिष्ट न करके दूसरे उपायको काममें लाना ही न्यायसंगत है । यदि भाग जानेसे अनिष्ट निवारण हो, तो भीरुताके अपवादका भय करके उस उपायको काममें न लाना,
( १ ) ' Resist not evil' इस वाक्यका अनुवाद :- Matthew, V, P. 39 देखो ।