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दूसरा अध्याय ] कर्तव्यताका लक्षण । ध्यात्मिक चिन्तामें मग्न होनेकी ओर, और अन्तर्जगत्के सूक्ष्मतत्त्व ( अर्थात् फलाफलसंस्रवरहित नीरस कर्तव्यता) के अनुशीलनमें लगनेकी ओर, प्रवृत्ति ही नहीं होती। प्रवृत्ति होने पर भी पूर्वाभ्यास और पूर्वशिक्षाके कारण उस चिन्ताकी और उस तत्त्वके अनुशीलनकी क्षमता ही उनमें नहीं होती। अतएव जैसे स्थूलदर्शी लोगोंके लिए निराकार ब्रह्मकी उपासनाकी अपेक्षा साकार देवताकी उपासना विधेय है, वैसे ही पूर्वोक्त प्रकारके लोगोंके लिए न्यायवादकी अपेक्षा क्रमशः सुखवाद, हितवाद, और सामञ्जस्यवाद ही अवलंबनीय हैं।
संकटस्थलमें कर्तव्यताका निर्णय । ऊपर साधारण स्थलमें कर्तव्यता-निर्णयके विषयकी बात कही गई है। अब संकटस्थलमें कर्तव्यताके निर्णयसे सम्बध रखनेवाली कुछ बातें कही जायेंगी। कर्मक्षेत्र बहुविस्तृत और संकट-पूर्ण है, और उसके संकट-स्थल भी अत्यन्त दुर्गम हैं। सब संकटस्थलोंकी आलोचना करनेकी, अथवा किसी संकटस्थलसे निर्विन निकल जानेके उपायका आविष्कार करनेकी में आशा नहीं रखता । केवल निम्नलिखित निरन्तर उठनेवाले चार प्रश्नोंकी कुछ आलोचना यहाँ पर की जायगी । वे चारों प्रश्न ये हैं
-आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना कहाँ तक न्यायसंगत है? २-पराये हितके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना कहाँ तक न्यायसंगत है ?
३-आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीके साथ असत्य-आचारण कहाँ तक न्यायसंगत है?
४-पराये हितके लिए अनिष्टकारीके साथ असत्य-आचरण कहाँ तक न्यायसंगत है?
१--आत्मरक्षाके लिए अनिष्टकारीका अनिष्ट करना कहाँ तक न्यायसंगत है, इस प्रश्नका उत्तर सब लोग ठीक एक ही ढंगसे नहीं देंगे । असभ्य आशेक्षित जातियोंसे यह उत्तर मिलेगा कि जहाँतक हो सके, अनिष्टकारीका अनिष्ट करना उचित है किन्तु सभ्य शिक्षित मनुष्य ऐसी बात नहीं कहेंगे। यहाँ पर महाभारतका यह वाक्य कि