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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
है (१) ? इसी लिए यद्यपि हितकारिता जो है वह कर्तव्यताका परिचय देनेवाली है और सुखकारिताकी अपेक्षा अधिक निर्भरके योग्य कर्तव्यताका लक्षण है, तथापि संपूर्णरूपसे निर्भरके योग्य नहीं है। _ प्रवृत्तिके दोष-गुणकी बात ऊपर कह दीगई । प्रवृत्तिका गुण यह है कि वह मुलमें अच्छे उद्देश्यके साथ हमें हितकर कार्य में प्रवलभावसे प्रेरित करती है । उसमें दोष यह है वह सहज ही न्यायकी सीमाको नाँघ जाती है, और मूलउद्देश्य अच्छा होने पर भी अन्तमें हमें कुमार्गमें ले जाती है। कर्मका स्थान कर्मीके सामने है, कर्मका काल वर्तमान है। अतएव कर्मकुशल लोगोंके लिए अद्रदर्शिता एक प्रकारसे अपरिहार्य है, और कुछ कुछ क्षमाके योग्य है। इस तरहके अदूरदर्शी कमकुशल लोग प्रवृत्ति मार्गके पक्षपाती हैं, और वे प्रवृत्तिमार्गके अनुसरणको एक प्रकारसे कर्तव्यताका लक्षण समझते हैं। किन्तु सुदूरदर्शी मनीषी नीतिशिक्षक लोगोंने प्रवृत्तिमुख कर्मकी अपेक्षा निवृत्तमुख कर्मकी ही अधिक प्रशंसा की है, और निवृत्ति मार्ग ग्रहण करनेका ही उपदेश दिया है। उनके मतमें निवृत्तिमार्गका अनुसरण ही कर्तव्यताका औरोंकी अपेक्षा निर्भरयोग्य लक्षण है । इस मतके अनुकूल पक्षमें सामान्य ज्ञानके द्वारा यह बात कही जा सकती है कि प्रवृत्ति सहज ही इतनी प्रबल है कि प्रवृत्तिके अनुसार काम करनेके लिए किसीसे भी कहनकी जरूरत नहीं होती। प्रवृत्तिको संयत करने और निवृत्तिमार्गमें ले जानेके लिए ही शिक्षा और उपदेश आवश्यक है। मगर इसमें बाधा है । यह सच है कि कर्मस्थल कठिन होनेपर निवृत्तिमार्गगामी कभी अकर्म नहीं करेगा, किन्तु यह आशंका संगत है कि वह अनेक समय सत्कर्म भी नहीं कर सकता।
ऊपर कहा गया है कि प्रवृत्तिका एकमात्र नियन्ता बुद्धि ही है, और बुद्धिका एकमात्र सहायक ज्ञान ही है। और यह भी कहा जा सकता है कि प्रवृत्ति-निवृत्ति और स्वार्थ-परार्थका सामंजस्य एकमात्र बुद्धि ही कर सकती है,
और इस कार्य में भी ज्ञान ही अकेला बुद्धिका सहायक है। यह बात ठीक नहीं कि प्रवृत्तिमें दोषोंके सिवा गुण कुछ भी नहीं है, या निवृत्ति एकदम दोष
(१ ) Victor Hugo's Les Miserables उपन्यासके जिस अंशमें नायक Jean Valjeans' अपने विरुद्ध साक्षी दूँ , या न हूँ इस सम्बन्धमें तर्क वितर्क अपने मनमें करता है, वह अंश देखना चाहिए।