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सातवाँ अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण ।
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शून्य है, और इसका आभास ऊपर दिया जा चुका है। प्रवृत्ति और निवृत्तिके सम्बन्धमें जो कहा गया है, ठीक वही बात स्वार्थ और परार्थके सम्बन्धमें भी कही जा सकती है। हमारा यथार्थ स्वार्थ, जिसमें हमारा मंगल हो, उसे खोजना दोषकी बात नहीं है। किन्तु अपनी अपूर्णताके कारण उसे न समझ कर हम कल्पित स्वार्थके लिए व्यग्र होते हैं, और अन्यके हिताहितकी ओर बिल्कुल नहीं देखते । इसी कारण स्वार्थपरता इतने अनिष्टोंकी जड़ और इतनी निन्दनीय है। आत्मरक्षाके लिए स्वार्थकी ओर कुछ दृष्टि रखना आवश्यक है । और, केवल यही नहीं, स्वार्थकी ओर दृष्टि रखनेसे पराया अर्थ अर्थात् जनसाधारणका हित भी अवश्य ही साधित होगा। कारण, हमारा यथार्थ स्वार्थ परार्थविरोधी नहीं, बल्कि परार्थ के साथ संपूर्ण रूपसे मिला हुआ है। स्वार्थ कुछ सिद्ध किये बिना हम पराया अर्थ सिद्ध नहीं कर सकते । मैं अगर खुद असुखी और असन्तुष्ट रहूँगा तो मेरे द्वारा दूसरेका सुखी और सन्तुष्ट होना कभी संभव नहीं (१)। मगर एकबार स्वार्थकी ओर देखना आरंभ करनेसे स्वार्थपरता इतनी बढ़ उठती है कि फिर सहजमें वह दबाई नहीं जा सकती । इसी कारण नीतिशिक्षकोंने स्वार्थ-परताको दबाये रखनेका इतना उपदेश दिया है। इन सब बातोंपर विचार करनेसे स्पष्ट समझ पड़ता है कि प्रवृत्ति-निवृत्ति और स्वार्थ-परार्थका सामंजस्य करके चलनेकी अत्यन्त आवश्यकता है, और जिन कर्मों में प्रवृत्ति-निवृत्ति और स्वार्थ-परार्थ-का सामजस्य है, उनका न्यायसंगत होना ही संपूर्ण संभव है । किन्तु प्रवृत्ति और स्वार्थपरता सवदा इतनी प्रबल हैं, और पूर्वोक्त सामंजस्य करना इतना कंठिन है कि कर्तव्यताका निर्णय करने में केवल उसीपर निर्भर करनेसे काम नहीं चलता।
यह सब सोचकर देखनेसे जाना जाता है कि यद्यपि सुखकारिता हितकारिता आदि कर्मके अन्यान्य सद्गुण कर्तव्यताके परिचायक हैं, और किसी खास कामकी कर्तव्यता जाँचनेमें उनपर दृष्टि रखनेसे सुभीता हो सकता है, किन्तु वे सब गुण कर्तव्यताके लक्षण नहीं हैं, और फलाफलकी चिन्ता न करके सबके पहले ही कर्नकी न्यायानुगामिता पर लक्ष्य रखना आवश्यक है।
(१) Herbert spencer's Data of Ethics, Chapters Anil and XIV इस सम्बन्ध में देखा ।
ज्ञान.-१४