________________
• दूसरा अध्याय]
कर्तव्यताका लक्षण ।
२०७
कुमार्गमें ले जाती है। हम वर्तमानके क्षणिक सुखकी लालसामें फँसकर भविष्यके चिरस्थायी सुखकी बात भूल जाते हैं, और ऐसे कार्य कर बैठते हैं जिनसे कमसे कम कुछ कालके लिए उस चिरस्थायी सुखकी आशा नष्ट हो जाती है। इसी कारण असंयत सुखकी खोज इतनी निन्दनीय है। वह न हो तो यथार्थ सुखकी अभिलाषामें दोष नहीं है। सुखलाभकी प्रवृति हमारा स्वभावसिद्ध धर्म है । उसका उद्देश्य हमें उन्नतिकी राहमें ले जाना है । वही प्रवृत्ति सब जीवोंको यथार्थ या कल्पित सुखकी लालसामें डालकर कर्ममें नियुक्त करती है। उसी कर्मके फलसे कोई जीव उन्नतिकी राहमें और कोई जीव अवनतिके मार्गमें जाता है । जो जीव कुमार्गमें जा पड़ते हैं, वे फिर शीघ्र हो या विलम्बमें हो, उस राहमें सच्चा सुख न पकर, सुखकी खोजमें, उधरसे लौट आते हैं। केवल सुखलाभकी प्रवृत्ति के बारेमें नहीं, हरएक प्रवृत्तिके सम्बन्धमें यही बात कही जा सकती है। जिन हिंसा-द्वेष आदि सब प्रवृत्तियोंको निकृष्ट कहा जाता है उनका भी मुल-उद्देश्य एकदम बरा नहीं है। कारण, उनका संयतकार्य स्वार्थरक्षा है, परार्थकी हानि नहीं। मगर हाँ, विश्वका विचित्र नियम यही है कि प्रवृत्तिमात्र ही सहजमें असंयत हो उठती हैं, और उचित सीमाको नाँघकर कार्य करने लगती है। इसी लिए प्रवृत्तिदमनका इतना प्रयोजन है। इसी लिए प्रवृत्ति इतना अविश्वस्त पथप्रदर्शक है। इसी लिए कर्ताकी सुखकारिता कर्मकी कर्तव्यताका इतना अनिश्चित
प्रवृत्तिका एकमात्र नियन्ता बुद्धि है, और बुद्धिका एकमात्र बल ज्ञान है। ज्ञानकी सहायतासे बुद्धि सहजमें ही देख पाती है कि कर्ताकी सुखकारिता कर्मकी कर्तव्यताका निश्चित लक्षण नहीं है । किन्तु अन्यको सुखी करनेकी या जनसाधारणका हित करनेकी पर्यालोचनामें प्रवृत्तिकी उतनी प्रबलता रहना संभव नहीं है। परन्तु जनसाधारणके हितमें कर्ताका भी हित है। कारण, कर्ता भी जनसाधारणमेंका ही एक आदमी है। अतएव उस पर्यालोचनामें भी प्रवृति एकदम चुप नहीं है, उसके साथ प्रवृत्तिका बहुत कुछ संसर्ग है। अधिकता यह है कि हमारे ज्ञानकी अपूर्णताके कारण वह पर्यालोचना एक अति कठिन कार्य है। यह ठीक करना अनेक स्थलोमें अतिकठिन है कि कौन कर्म कहाँतक हितकारी या अपकारी है, और उसका परिणाम-फल क्या