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ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
संगत न होगा कि जो रोशनीमें स्पष्ट देख पड़ता है वह गृहस्थित वस्तुओंका कल्पित रूप है, और पूर्वानुभूत छाया ही उन वस्तुओंका यथार्थ रूप है।
न्यायवाद ही युक्तिसिद्ध है। अतएव विचारके द्वारा हम इस सिद्धान्त पर पहुंचते हैं कि न्यायवाद ही युक्तिसिद्ध है, अर्थात् कर्तव्यता या न्यायपरायणता कर्मका एक मौलिक गुण है, वह सुखकारिता या हितकारिता अथवा ऐसे ही अन्य किसी गुणका फल नहीं है। __ इस मूल-प्रश्नकी मीमांसाके बाद कर्तव्यताके सम्बन्धमें और दो प्रश्नोंकी आलोचना बाकी रही। वे ये हैं१-साधारणतः कर्तव्यताके निर्णयका विधान क्या है ? २-संकटके अवसर पर कर्तव्यताके निर्णयका विधान क्या है ? इन दोनों प्रश्नोंकी आलोचना क्रमसे की जायगी।
कर्तव्यताके निर्णयका साधारण विधान । बहुत लोगोंके मनमें इस तरहकी आपत्ति उठेगी कि जब यह निश्चय हो गया कि कर्तव्यता कर्मका मौलिक गुण है, तब उसका निर्णय करनेके लिए किसी विधानका क्या प्रयोजन है ? जैसे आकार-वर्ण आदि बहिरिन्द्रियग्राह्य मौलिक गुण प्रत्यक्षके द्वारा जाने जाते हैं, वैसे ही अन्तरिन्द्रियग्राह्य कर्तव्यतागुण अन्तदृष्टिके द्वारा जाना जायगा। बहुत लोगोंका कथन है कि जैसे रूपरस-शन-ध आदि गुणोंको जाननेके लिए आँख-जीभ-कान-नाक आदि बाहरी इन्द्रियाँ हैं, वैसे ही कर्तव्यता-गुण जाननेके लिए अन्तरिन्द्रिय अर्थात् मनकी विवेक-नामक एक विशेष शक्ति है और वही हमें बात देती है कि कौन कर्म कर्तव्य है-कौन अकर्तव्य है । पक्षान्तरमें, अनेक लोग ऐसा कह सकते हैं कि कर्तव्यता कर्मका मौलिक गुण होने पर भी उसका निर्णय करना अवश्य ही कठिन है। अगर यह बात न होती तो उसके सम्बन्धमें इतना मतभेद क्यों देख पड़ता है ? असल बात यह है कि अन्यान्य मौलिक गुणोंकी तरह कर्तव्यता भी स्वतः प्रतीयमान है, और बहिर्जगत् विषयक मौलिक गुण जैसे प्रत्यक्षके द्वारा जाने जाते हैं, वैसे ही अन्तर्जगत्-विषयक यह मौलिक गुण कर्तव्यता भी अन्तर्दृष्टिके द्वारा जानी जाती है। ज्ञाताकी जिस शक्तिके द्वारा उस गुणकी उपलब्धि होती है उसे बुद्धिकी अलग एक खास