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दूसरा अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण ।
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शक्ति अनुमान करनेका प्रयोजन नहीं है। कोई कोई उस शक्तिको विवेक कहते हैं। मगर वह बुद्धिहीका एक अन्य नाममात्र है। साधारणः सभी जगह बुद्धि जो है वह किसी तरहकी परीक्षाके बिना फौरन् कर्तव्यताका निर्णय कर सकती है । किन्तु ऐसे अनेक जटिल स्थल भी हैं जहाँ वैसा होना संभव नहीं; कर्तव्यताके निर्णयके लिए परीक्षा और पर्यालोचनाका प्रयोजन है। जिन जिन विषयोंके द्वारा वह परीक्षा की जाती है वे विषय कभी कभी कर्तव्यताका परिचय देनेवाले न मानेजाकर कर्तव्यताके उपादान अनुमित हुए हैं। जो कर्तव्य है वह प्रायः हितकर ही होता है, इसी कारण किसी कर्मविशेषके सम्बन्धमें सन्देह होने पर बुद्धि कल्पनाके द्वारा परीक्षा करके देखती है-वह कर्म हितकर है कि नहीं। और इससे कोई कोई अनुमान करते हैं कि कर्तव्यता जो है वह हितकारिताके उपादानसे गठित है और हितकारिताका नामान्तरमात्र है। अगर किसी कर्मकी कर्तव्यताका निर्णय करनेके लिए यह ठीक करना कठिन हो कि वह हितकर है या नहीं, तो बुद्धि और तरहकी परीक्षाका प्रयोग करती है। जैसे-जो कर्तव्य है उसमें अक्सर स्वार्थ और परार्थका सामञ्जस्य रहता है, अतएव बुद्धि कल्पनाके द्वारा देखती है कि उपस्थित कर्ममें वह सामञ्जस्य है या नहीं। इसीसे कोई कोई अनुमान करते हैं कि कर्तव्यता जो है वह स्वार्थ और परार्थके सामंजस्यके सिवा और कुछ नही है। इसी तरह हितवाद सामंजस्यवाद आदि भिन्न भिन्न मतोंकी उत्पत्ति हुई है। मनुजीने कहा है
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम् ॥
(मनु २ । १२) अर्थात् वेद (श्रुति ), स्मृति, सदाचार और आत्माका सन्तोष, ये ही चार धर्मके लक्षण कहे गये हैं।
वेद स्मृति और साधुपुरुषोंके सदाचारके साथ साथ आत्मतुष्टिको भी धर्मका लक्षण बतानेसे इसका आभास पाया जाता है कि मनुके मतमें भी विवेक जो है वह धर्म अर्थात् कर्तव्यताके निरूपणका उपाय है।