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दूसरा अध्याय ]
कर्तव्यताका लक्षण ।
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होता है, और जो कार्य सुखकर या हितकर है वही क्रमशः न्यायसंगत कहकर अभिहित और गृहीत होता है । यह बात कुछ कुछ यथार्थ होने पर भी संपूर्ण रूपसे यथार्थ नहीं है। सच है कि मनुष्य निरन्तर सुखकी खोजमें लगा हुआ है, और सुखकी खोज करते करते ही क्रमशः न्यायकी ओर नजर पड़ती है; क्योंकि इस विश्वके विचित्र नियमके अनुसार जो न्यायसंगत है वही यथार्थ सुखकर है। हम अपने सुखके लिए स्त्री-पुत्र-कन्याको प्यार करना पहले सीखकर अंतको पराये सुखके लिए सारे विश्वके प्रेमके अधिकारी होते हैं। जो श्रेय है वही यथार्थ प्रेय है, इसी लिए प्रेयकी खोजमें जाकर क्रमशः हम श्रेयको पाते हैं। यह सष्टिका विचित्र कौशल है। किन्तु इसी लिए यह कहना ठीक नहीं कि जो सुखकर है वही कर्तव्य है और जो प्रेय है वही श्रेय है। __और एक बात है। पहले ही ( प्रथम भागके दूसरे अध्यायमें ) कहा जाचुका है कि मनुष्यकी अपूर्णताके कारण यह बात नहीं है कि हमारा जाना हुआ रूप ही ज्ञेय पदार्थका यथार्थ रूप हो। हाँ, ज्ञानवृद्धिके साथ साथ उस यथार्थ रूपकी उपलब्धि होती है । असभ्य मनुष्य कर्मके सुखकारिता-गुणसे अलग कर्तव्यताका गुण नहीं देख पाता। किन्तु सभ्य मनुष्य अपने बड़े हुए ज्ञानके द्वारा अलग स्पष्टरूपसे उस कर्तव्यताकी उपलब्धि करता है। यह विचित्र नहीं है, और इसमें कर्तव्यता या न्यायका अलग अस्तित्व अस्वीकार करनेका कोई कारण नहीं देख पड़ता। यदि कोई कहे, सभ्य मनुष्य जो कर्तव्यताकी अलग उपलब्धि करता है सो वह असभ्य मनुष्यके अनुभूत सुखकारितागुणका क्रमविकासमात्र है, तो उसमें आपत्ति नहीं है, यदि वह स्वीकार कर ले कि बढ़े हुए ज्ञानमें कर्मके कर्तव्यता-गुण की जो उपलब्धि होती है वही उस गुणका यथार्थ स्वरूप है। किन्तु अगर वह कहना चाहे कि सुखकारितागुण ही कर्मका एक प्रकृत गुण है, क्रमविकासके द्वारा अनुभूत कर्तव्यता- गुण प्रकृत गुण नहीं-कल्पित गुण है, तो वह बात किसीतरह स्वीकार नहीं की जासकती । अंधेरे घरमें जो वस्तुएँ होती हैं उनकी अस्पष्ट छाया भर देखनको मिलती है, बादको रोशनी करने पर वे वस्तुएँ स्पष्ट देख पड़ती हैं । यहाँ पर अगर यह कहा जाय कि जो देखा जाता है वह पूर्वानुभूत छायाका विकासमात्र है तो कुछ दोष नहीं । किन्तु यह कहना कभी