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पहला अध्याय ]
कर्ताकी स्वतंत्रता ।
विचार करनेके लिए यह देखना होगा कि कर्ताकी स्वतन्त्रता है या नहीं।
और, कर्ताकी स्वतन्त्रता न रहनेपर अवश्य ही यह स्वीकार करना होगा कि दोष-गुण साधारणतः जिस अर्थमें गृहीत होते हैं, उस अर्थमें अपने कमौके लिए कर्ताके दोष-गुण नहीं हैं, उसकी निन्दा या यश नहीं हैं।
दूसरे, देखा जाय कि कताकी स्वतन्त्रता न रहनेपर कमका फलाफल उसके सम्बन्धमें फलेगा कि नहीं, और वह फलाफल तथा उसके साथ दण्ड या पुरस्कार उसे ग्रहण करना होगा कि नहीं। कर्मके लिए कर्ता जिम्मेदार हो या न हो, भले कर्मका भला फल और बुरे कर्मका बुरा फल अवश्य ही फलेगा । मैं अगर किसी गरीबको एक अठन्नी देना सोचकर भूलसे एक गिनी दे दूं, तो भी लेनेवालेको गिन्नी मिलनेका फल मिलेगा। अथवा में यदि कोई चीज फेकते समय दैवसंयोगसे किसी व्यक्तिको चोट पहुंचाऊँ, या मार बैं→, तो भी चोट खाये हुए व्यक्तिको चोटकी वेदना पहुंचेगी। हाँ, दान करनेके कारण सुख या चोट पहुँचानेके कारण दुःख जानकर करनेसे जैसा होता, वैसा नहीं होगा। तथापि लेनेवालेकी भलाई हुई-यह जान कर सुख और चोट खानेवालेको कष्ट पहुँचा-यह जानकर दुःख इस जगह भी होगा, और वह होना भी चाहिए। किन्तु मेरी स्वतन्त्रता नहीं है, मैं अवस्थाका दास हूँ और अवस्थाके द्वारा वाध्य होकर मैंने अच्छा या बुरा काम किया, उसका शुभाशुभ, उसका पुरस्कार या दण्ड मुझे भोगना नहीं पड़ेगा-इन बातोंको सहज ही न्यायसंगत कहकर स्वीकार करनेको जी नहीं चाहता। इन बातोंको जरा विवेचना करके देखना आवश्यक है। अगर कोई मेरी संपूर्ण अनिच्छा रहने पर भी मेरी बीमारीमें बलपूर्वक मुझे कोई दवा खिला-पिला दे, तो क्या उससे मेरा रोग शान्त न होगा ? अथवा यदि कोई मेरी संपूर्ण अनिच्छा रहने पर भी बलपूर्वक मुझे कोई जहरीली चीज खिला-पिला दे, तो क्या उससे मेरा स्वास्थ्य नहीं नष्ट होगा? तो फिर मैं यह बात क्यों कहता हूँ कि मैंने अवस्थासे लाचार होकर काम किया है, इस लिए मेरा उसका फलाफल भोगना न्यायसंगत नहीं है ? जान पड़ता है, उसका कारण यह है कि मैं अपने जड़जगत्के कर्म ( जैसे देहके ऊपर दवा या विषकी क्रिया) को अंध प्रकृतिके अलंध्य नियमके अधीन समझता हूँ, और सज्ञान जीव-जगत्के कर्मको वैसा नहीं समझता, और उस कर्मका फल देनेवालेको न्यायी समझ कर