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१८८ ज्ञान और कर्म।
द्वितीय भाग wwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwwww..... है केवल वही देखते हैं, और चक्षुइन्द्रियमें कोई दोष रहनेपर चन्द्रमा भी उसीके अनुसार विकृत देख पड़ता है । जैसे दर्शकको पाण्डुरोग (काँवर ) हुआ, तो उसे चंद्रमा पाण्डुवर्ण देख पड़ेगा। ___ मनुष्यकी इच्छा ही अपना कारण है, वह अन्य किसी कारणका कार्य नहीं, यह बात कहनेसे प्रत्येक मनुष्यकी इच्छा एक एक स्वाधीन कारण होगी, और ऐसा होनेपर जगत्के एक आदिकारणसे अलग और भी बहुतसे स्वाधीन कारणोंका अस्तित्व स्वीकार करना पड़ता है। इस तरहकी बहुतसे कारणोंकी कल्पना युक्तिसिद्ध नहीं है । हाँ, यहाँतक कहा जा सकता है कि आत्मा जिस चिन्मय पूर्ण ब्रह्मका अंश है, आत्माका स्वाधीनता-बोध उसी पूर्णब्रह्मकी स्वतन्त्रताका अस्फुट विकाश हो तो हो सकता है।
और एक आपत्ति । स्वतन्त्रतावादी लोग कर्ताके परतन्त्रतावादके विरुद्ध और एक भारी आपत्ति ‘उपस्थित करते हैं । वे कहते हैं, यदि कर्ताकी स्वतन्त्रता नहीं है, तो कर्ता अपने कर्मके लिए जिम्मेदार नहीं है, और कर्ताके दोषगुण भी नहीं रहते । अतएव पाप-पुण्य और उनके कारण होनेवाला दण्ड और पुरस्कार भी उठ जायगा । इस आपत्तिकी अवश्य ही विवेचनाके साथ अलोचना करना कर्तव्य है।
उसका खण्डन। कर्ताकी स्वतन्त्रता न रहनेसे कर्ता कर्मके लिए जिम्मेदार नहीं हो सकता। किन्तु ऐसा होनेसे ही पाप पुण्य और दण्ड-पुरस्कार उठ जानेकी बात नहीं स्वीकार की जासकती । कर्मके कारण कर्ताके दोष-गुण नहीं हैं, यह कहकर कर्मके दोष-गुण और फलाफलका भी लोप नहीं हो सकता। कर्मके लिए कर्ता जिम्मेदार हो या न हो, पापकर्म दोषकर काम और पुण्यकर्म गुणकर काम गिना ही जायगा । कर्मका फलाफल अवश्य ही फलेगा, और वह फलाफल कर्ताको अवश्य ही भोग करना पड़ेगा। ___ पहले तो, कर्मके दोष-गुण कर्ताकी जिम्मेदारी होने या न होने पर निर्भर नहीं हैं, यह बात शायद सहज ही अनेक लोग स्वीकार कर लेंगे। कर्ता चाहे जानकर करे, और चाहे बिना जाने करे, उसके किये हुए भले-बुरे काम अवश्य ही भले-बुरे गिने जायेंगे । हाँ, उसमें कर्ताका दोष-गुण है या नहीं, यह