________________
ज्ञान और कर्म।
[द्वितीय भाग
उसके द्वारा स्वतन्त्रतारहित कर्ताके लिए कर्मफलभोगके विधानको अन्याय या अनुचित मानता हूँ। यदि स्वतन्त्रताहीन कर्ता के लिए उसके दुष्टकर्मका फल अनन्त दुःख मानना पड़े, तो उसे अवश्य ही अन्याय कहकर स्वीकार करना होगा। किन्तु कर्ता चाहे स्वतन्त्र हो, और चाहे परवश हो, हम यह बात क्यों स्वीकार करेंगे कि उसके दुष्कर्मका फल अनन्त दुःख है ? यह बात स्वीकार करनेसे कर्ता स्वतन्त्र होने पर भी कर्मफल देनेवालेकी न्यायपरताकी रक्षा नहीं होती। कारण, जो लोग अनन्त दुःखकी बात कहते हैं, वे अवश्य ही अनन्तशक्तिमान और अनन्तज्ञानमय ईश्वर मानते हैं। इसके साथ ही यह बात भी माननी पड़ती है कि उस ईश्वरने, जो जीव अनन्त दुःखभोग करेगा उसको, अनन्त दुःख भोगनवाला होगा-यह जानकर, उत्पन्न किया है। ऐसा होनेपर वैसी सृष्टि न्यायसंगत कैसे कही जा सकती है ? कोई कोई इस आपत्तिका खण्डन करनेके लिए अनन्तज्ञानमय ईश्वरको भी उसीके उत्पन्न किये जीवके भावी कर्म और शुभाशुभके बारेमे अज्ञ कह कर स्वीकार करनेमें भी कुंठित नहीं हैं *।
किन्तु यह बात किसी तरह युक्तिसिद्ध नहीं कही जा सकती। अगर दुष्कर्मका फल दण्डस्वरूप अनन्त दुःख न होकर, कर्ताके संशोधन और उन्नति साधनका उपाय-स्वरूप परिमितकालव्यापी दुःखभोग हो, और उसका परिणाम अनन्त सुखलाभ हो, तो फिर सभी आपत्तियोंका खण्डन हो जाता है। वैसा होने पर, कांकी स्वतन्त्रता न रहने पर भी पाप-पुण्यका प्रभेद और दुष्कर्मके लिए दुःखभोगका विधान जैसेका तैसा बना रहा, साथ ही उसके लिए कर्ताके ऊपर अन्याय भी नहीं हुआ। क्यों कि कर्ताके दुष्कमके कारण होनेवाला दुःखभोग अन्तमें अनन्तकालव्यापी सुख पानेका उपाय मात्र है, और यह कहें तो कह सकते हैं कि वह परिमित समयका दुःख अनन्त कालके अपरिमित सुखके आगे तुलनामें कुछ भी नहीं है।
कर्माकर्मके शुभाशुभ-फलभोगको अगर पुरस्कार या दण्ड-स्वरूप न मान कर, उसे कर्ताकी शिक्षा (नसीहत ) या संशोधनका उपाय समझा जाय, तो कर्ता स्वतन्त्र हो या न हो, उस फलभोगके विधानको उसके प्रति अविचार समझनेका कोई कारण नहीं रह जाता।
* Dr. Martineau's Study of Religion, Vol. II. P. 279 यो ।