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सातवाँ अध्याय ]
ज्ञान-लाभका उद्देश्य ।
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सुखकी अनित्यताका बोध और आत्मोत्कर्षके साधनमें आनन्द-ये दोनों ज्ञानोपार्जनके उत्कृष्ट फल मिले या न मिले, इन सब उच्च श्रेणीकी बातोंको छोडकर, कमसे कम उपर कहे गये स्वार्थ और परार्थक साधारण जमा-खर्चको पमझ कर चलना सीखनेसे संसारके बाजारमें आकर लाभ न होगा तो अत्यन्त क्षतिग्रस्त होकर लौटना भी नहीं पड़ेगा।
जो लोग परकाल मानते हैं, उनके लिए ज्ञानका चरम उद्देश्य है जगत्के बन्धनसे मुक्ति मिलना और ब्रह्मकी उपलब्धि । उस चरम लक्ष्यके ऊपर दृष्टि रखकर चलनेसे मनुष्य सदा ठीक ही राह पर जायगा। और, वह चरम उक्ष्य भूल जानेसे मनुष्य संसारयात्रामें राह भटक जाता है। बहुत लोग समझते हैं, उस चरम लक्ष्य पर दृष्टि रखना जीवनकी शेष अवस्थाका विधान है. प्रथम अवस्थामें इस कर्मक्षेत्र पर लक्ष्य रखकर कर्मी होनेकी ही आवश्यकता है। वे कहते हैं, उस चरम लक्ष्य पर दृष्टि रखनेसे इस देशके लोग भंकर्मण्य हो गये हैं और इस समय अत्यन्त हीन अवस्थामें आपड़े हैं। कुछ वेवेचना करके देखनेसे समझमें आ जायगा कि यह आपत्ति संगत नहीं है। दूरस्थ चरम लक्ष्यको याद रखनेवाला निकटस्थ वर्तमान लक्ष्यको भूल जाय, यह बात कोई नहीं कहता। यह सच है कि अल्पबुद्धि मनुष्य एक ओर यान रखता है तो उसे दूसरी ओरका खयाल नहीं रहता; किन्तु इसी काण चरम लक्ष्यको याद रखनेके लिए कहना आवश्यक है। कारण, निकटका लक्ष्य सहज ही याद रहेगा। हाँ, एकाग्रताके साथ केवल उसी चरम सक्ष्य पर दृष्टि रखकर वर्तमान कर्तव्यको भूल जाना विधि-सिद्ध नहीं है। पद्यपि परलोक और मुक्तिलाभके साथ तुलनामें यह लोक और वैषयिक ज्यापार अत्यन्त तुच्छ है, किन्तु इन तुच्छ विषयोंकी साधनाके बाद ही उन इच विषयों में अधिकार पैदा होता है । इस लोकके भीतर होकर ही पर- ' होकके जानेकी राह है। वैषयिक व्यापारोंमें कर्तव्यपालनका अभ्यास ही युक्तिलाभका उपाय है। यही विश्वनियन्ता जगत्पिताका बनाया नियम है। मार्यऋषियोंकी एक आश्रमके बाद दूसरे आश्रमको ग्रहण करनेके सम्बन्धकी शेक्षा है। इस नियमका उल्लंघन करनेसे, निम्नास्तरकी शिक्षाके पहले ही उच्च तरको शिक्षाके योग्य समझनेसे, और विज्ञान शिक्षाकी अवहेला करके दर्शन शास्त्रकी आलोचनामें मन लगानेसे हमारी दुर्गति हुई है। अतीत कालकी.
ज्ञान०-१२