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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
यही बात और एक भावसे देखी जा सकती है। हम जैसे स्वार्थपरताकी प्रवृत्तिके द्वारा अपने हितसाधनके लिए उत्तेजित होते हैं वैसे ही उधर दयादाक्षिण्य-उपकार करनकी इच्छा आदि प्रवृत्तियों के द्वारा पराया हित करनेके लिए भी उत्साहित देखे जाते हैं । जो मनुष्य जितना परहितमें निरत है, वह उतनी ही पराई सहायता पाता है, और अपने स्वार्थसाधनमें निर्विघ्न रूपसे निवृत्त रह सकता है।
एक ओर याद रखना होगा कि जैसे हमारी अपूर्ण अवस्थामें पूर्ण निःस्वार्थपरता संभवपर नहीं है, वैसे ही शुभकर भी नहीं है। हमारी वर्तमान देहयुक्त अपूर्ण अवस्थामें कुछ स्वार्थ ऐसे हैं जिन्हें त्याग करना असाध्य है, और उन स्वार्थोके साधनके लिए हम खुद यत्न न करें तो अभी समाज इतना उन्नत नहीं हुआ कि और लोग उसके लिए यत्न करेंगे । पक्षान्तरमें, हम अगर अत्यन्त स्वार्थपर होंगे तो अन्यके स्वार्थके साथ विरोध उपस्थित होगा, और अपने स्वार्थका साधन असाध्य हो उठेगा । जो अपना सच्चा हित चाहता है उसे निरन्तर इस समस्याकी पूर्ति करके चलना होगा कि कहाँतक अपने स्वार्थका त्याग करनेसे और पराये स्वार्थ पर दृष्टि रखनेसे यथासाध्य उच्च मात्रामें स्वार्थ लाभ हो सकता है। ऐसी जगह पूर्वकथित गणितके गरिष्ठफलनिरूपणकी बात स्मरण रखकर चलना अवश्यक है।
सच्चा स्वार्थ परार्थका विरोधी नहीं होता। हमारा यथार्थ स्वार्थ अन्यके यथार्थ स्वार्थके विरुद्ध नहीं होगा। जो कुछ विरोध देख पड़ता है उसका कारण हमारी अपूर्णता और देहयुक्त अवस्था ही है । जो व्यक्ति या जो जाति स्वार्थ और परार्थके इस विरोधकी मीमांसा करके जीवन-संग्राम और जीवके सख्य भावका सामंजस्य स्थापित कर सकती है, और इस दृढ़ विश्वासको प्राप्त करती है कि परार्थको एकदम अग्राह्य करके अखंडित स्वार्थ लाभकी दुराकांक्षा केवल बुरी ही नहीं, बल्कि जगत्के नियमके अनुसार अपूरणीय भी है, वही व्यक्ति या जाति यथार्थमें योग्यतम होती है और उसीको विजय मिलती है। लोग सुनें या न सुनें, यथार्थ ज्ञान जो है वह स्पष्ट करके ऊँचे स्वरसे निरन्तर यही बात कह रहा है। ब्रह्मकी उपलब्धिके द्वारा ज्ञानलाभका चरम उद्देश्य सिद्ध हो या न हो, सांसारिक