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सातवाँ अध्याय ]
ज्ञान-लाभका उद्देश्य ।
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भी युद्धभूमि बनाने कर उद्योग हो रहा है। यह उद्योग सफल होने पर उसका परिणाम जैसा भयानक होगा, उसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।
युद्धके अनुकूल पक्षमें कोई कोई यह बात कहते हैं कि युद्धहीके द्वारा अधिकांश पृथ्वी क्षमताशाली और सभ्य जातियोंके हाथ में आई है, असभ्य जातियोंने सभ्य जातियों के अधीन होकर अपनी उन्नति की है, और जहाँ किसी असभ्य जातिको वशीभूत करना असाध्य या अतिकाठेन आन पड़ा है वहाँ खूनी जानवरोंकी तरह उनको विनष्ट करके पृथ्वी पर सभ्य जातिकी निवासभूमिका परिमाण बढ़ाया गया है। यह बात कुछ कुछ सत्य है सही, लेकिन संपूर्ण सत्य नहीं है। प्राचीन इतिहास इनकी पूर्ण सत्यताको नहीं प्रमाणित करता । अनेक स्थलों में सभ्य और अलभ्य में नहीं, सबल और दुर्वलमें युद्ध हुआ है। उसमें दुर्बल सभ्य जातिने परास्त होकर तरहतरहके कष्ट सहे हैं । पाश्चात्य पण्डितोंमें जो मत प्रचलित है उसके अनुसार “ जगत्में संग्राममें योग्यतमकी जय होना ही प्राकृतिक नियम है और इसी नियमके फलसे योग्यतम जीवोंकी संख्या बढ़ कर अशुभकर जीवन-संग्रामसे जीवजगत्की उन्नति होनेका जो शुभ फल है वह उत्पन्न हो रहा है। यह बात भी संपूर्ण सत्य कहकर स्वीकार नहीं की जा सकती।
अज्ञान जीवजगत्में यह अवश्य सत्य है, किन्तु सज्ञान जीवजगत्में संग्राम और मैत्री, विद्वेष और प्रीति, इन दोनोंकी क्रिया एकत्र चलती है । जीवकी प्रथम अवस्थामें, ज्ञानोदयके प्रारंभ में, क्षुद्र स्वार्थकी प्ररोचनासे आत्मरक्षाके लिए सब जीव परस्पर विद्वेषभावले संग्राममें लगे रहते हैं और योग्यतमकी ही विजय होती है,किन्तु क्रमशः मनुष्यजातिकी परिणतअवस्थामें ज्ञानवृद्धिके साथसाथ एक ओर जैसे हम समझ पाते हैं कि केवल अपने स्वार्थका मुंह देखनेसे परस्परके विरोधमें किसीका भी स्वार्थ साधित नहीं होता, और असंयत स्वार्थकी उत्तेजना घटनेसे संग्रामकी प्रवृत्ति शान्त होती है, दूसरी ओर वैसे ही देख पाते हैं कि अन्यके स्वार्थ पर कुछ लक्ष्य रखनेले परस्परकी सहायताके द्वारा अपना अपना स्वार्थ भी बहुत कुछ सिद्ध होता है, और मित्र भावका उदय भी होता है। एक ओर जैसे अत्यन्त स्वार्थपरताका अपकार समझा जा सकता है, दूसरी
ओर वैसे ही वह बात समझ सकनेके फलसे हम लोगोंका परस्पर व्यवहार ऐसा होने लगता है कि अत्यन्त स्वार्थपरताका प्रयोजन कम रह जाता है।