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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
है। वह अनुशीलन जितना सफल होगा, उतना ही विद्यार्थियों के लिए ज्ञानका उपार्जन सहज होगा, और साधारण समाजके भी ज्ञानका घेरा फैलता रहेगा। कारण, शास्त्रका तत्त्व सहजमें बोधगम्य होनेसे ही वह फिर केवल शिक्षितोंकी खास सम्पत्ति नहीं रहेगा, उस पर सर्वसाधारणका भी अधिकार होगा।
(४) वैद्यों और हकीमोंकी अनेक दवाएँ इस देशमें इस्तेमाल की जाती हैं। उनकी यथार्थ कार्यकारिता और दोष-गुणके सम्बन्धमें अनुशीलनके होनेकी बड़ी ही जरूरत है।
वैद्यों और हकीमोंका चिकिसाशास्त्र चाहे भ्रान्तिरहित हो और चाहे भ्रांत हो, उनकी दवाएँ जब अनेक जगह फलदायक होती हैं, तब पाश्चात्य प्रणालीसे सुशिक्षित चिकित्सकों ( डाक्टरों) के द्वारा कमसे कम उनकी उपयुक्त परीक्षा होना उचित है । अगर वे दवाएँ इस देशके लिए विशेष उपयोगी और उपकारक सिद्ध हों, तो लोगोंका उस उपकारके लाभसे वञ्चित रहना युक्तिसंगत नहीं है। पाश्चात्य प्रदेशों में नित्य नई दवाओंका आविष्कार होता है, तो भी आश्चर्य और दुःखका विषय यह है कि इस देशमें पुरातन और बहुत दिनोंकी जाँची हुई दवाओंकी पुनःपरीक्षा पाश्चात्य प्रणालीसे शिक्षित चिकित्सकोंके द्वारा नहीं होती।
(५) दुष्कर्मके कारण दण्ड पाये हुए लोगोंका संशोधन किसी तरहकी शिक्षा अथवा चिकित्साके द्वारा हो सकता है या नहीं, इस विषयका अनुशी‘लन भी लोकहितके लिए अत्यन्त प्रयोजनीय है।
समाज और सभ्यताकी आदिम अवस्थामें जिसकी हिंसा की जाती थी उसकी प्रतिहिंसा-प्रवृत्तिको चरितार्थ करनेके लिए हिंसकको दण्ड दिया जाता था (१)। बादको यह निकृष्ट इच्छा कम होने लगी और दण्डविधानके उच्चतर उद्देश्यपर दृष्टि पड़ी। वह उद्देश्य-हिंसक और उसके मार्गपर उसके पीछे चलनेवाले अन्य व्यक्तियोंको दण्डका भय दिखाकर दुष्कर्मसे निवृत्त करना, स्थलविशेषमें हिंसित व्यक्तिकी क्षतिको यथासंभव पूर्ण करना और यथासाध्य हिंसकका संशोधन था। यह अंतिम उद्देश्य अगर संपूर्णरूपसे पूरा
(१) Salmond's Jurisprudence P. 82; Holmes' Common Law, Lecture II; Bentham's Theory of Legislation, Part II •Ch. 16; Deuteronomy XIX 21 देखो।