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ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
अर्थात् प्रस्तककी विद्या और पराये हाथमें दिया हुआ धन, दोनों ही चीजें समय पड़ने पर काम नहीं आतीं।
वैसे ही दूसरी ओर यह भी कहा है कि ग्रन्थी भवति पण्डितः। अर्थात् ग्रन्थसंचय करनेवाला पण्डित होता है।
वास्तवमें दोनों ही बातें कुछ कुछ सत्य हैं । कुछ ऐसे आवश्यक विषय हैं जिनके पुस्तकगत होनेसे काम नहीं चलता, वे कण्ठस्थ या हृद्भत होने चाहिए। किन्तु बहुतसे विषय ऐसे भी हैं जिन्हें संपूर्ण रूपसे सर्वदा याद रखना असाध्य और अनावश्यक भी है। मगर समय समय पर उनमेंसे कोई कोई विषय जानना आवश्यक है, और इसके लिए यह जाने रहना उचित है कि उनमेंसे कौन विषय किस पुस्तकमें कहाँ पर है। उन सब पुस्तकोंको अपने पास जमा कर रखनेकी भी इसी लिए जरूरत है। इसी लिए पुस्तकालय भी शिक्षाका एक प्रधान उपकरण है। परन्तु ऐसी आशा भी नहीं की जा सकती कि सब पुस्तकालयोंमें सभी पुस्तकें रहें । जहाँ जिन विषयोंकी शिक्षा दी जाती है वहाँ उन सब विषयोंसे सम्बन्ध रखनेवाले प्रधान प्रधान ग्रन्थ रहनेसे काम चल सकता है।
(६) यन्त्र आर यन्त्रालय भी शिक्षाके लिए आवश्यक हैं। ऐसे अनेक जटिल और कठिन विषय हैं, जिन्हें समझानेके लिए वस्तुके शब्दमय विवरण अथवा पुस्तकमें छपेहुए चित्र यथेष्ट नहीं होते। उनकी अन्य प्रकारकी प्रतिकृति, जो यंत्रादिके द्वारा दिखलाई जासकती है, विद्यार्थीके सामने उपस्थित रहनेकी आवश्यकता होती ह । विज्ञान और शिल्पकी शिक्षाके लिए यन्त्र आदि सामग्री अत्यन्त प्रयोजनीय है। लेकिन इस बारेमें एक बात. याद रखना उचित है। सम्पूर्ण रूपसे सुसज्जित यन्त्रालय यद्यपि वाञ्छनीय है, पर उसके लिए अधिक खर्चकी जरूरत होती है। कम खर्च में और सहजमें बने हुए यन्त्र आदिके द्वारा ही जितना शिक्षाका काम चले उतना ही शिक्षक और छात्र दोनोंका गौरव है।
(७) परीक्षा । अर्थात् वैध परीक्षा शिक्षाका एक प्रयोजनीय उपकरण है। किन्तु अवैध परीक्षाको शिक्षाके लिए वाधा भी कहें तो कह सकते हैं। जिस परीक्षाका उद्देश्य यह देखना है कि शिक्षाका काम किस तरह चल रहा है और विद्यार्थी लोग कहाँतक क्या सीख रहे हैं, वह परीक्षा शिक्षाका उप