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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय।
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जिक रीतिनीतिया निरन्तर परिवर्तित होकर क्रमशः उन्नतिकी ओर बढ़ रही हैं । मानवकी विचार शक्तिने अतीतकालमें जो सब उच्च आदर्श दिखाये हैं उनसे भी आधिक उच्च आदर्शको वह भविष्यमें दिखा सकती है । अतएव विचार-प्रवाहको रोकना और नवीन काव्योंकी रचनाको बंद करना कभी युक्तिसिद्ध नहीं है । काव्य-रचना होनेमें ऐसी आशा नहीं की जासकती कि सभी काव्य उत्कृष्ट होंगे। कोई अच्छा, कोई बुरा, और उनमेंसे अधिकांश न भले और न बुरे बनेंगे । यही प्राकृतिक नियम है। दस ग्रन्थों में एक भी अच्छा होनेसे उसे यथेष्ट समझना चाहिए।" ये सब बातें सत्य हैं, और उत्कृष्ट ग्रन्थके सिवा अन्य ग्रन्थोंकी रचना करना एकदम अनुचित नहीं कहा जासकता । नवीन बालुकामय भूमिमें जैसे पहले घास-फूस निकलता है और वह सड़कर उस भूमिमें खादका काम करता है, जिससे वह भूमि उपजाऊ होकर अन्न और अच्छे वृक्ष पैदा करनेके योग्य होती है, वैसे ही नई भाषामें नये विषयकी निकृष्ट पुस्तकें ही पहले रचित होकर एक प्रकारसे अच्छी भूमि बनाती हैं, जिससे बुद्धिमान् लेखकगण उस भाषामें या उस विषयमें उत्कृष्ट ग्रन्थोंकी रचना करनेके लिए प्रेरित होते हैं। निकृष्ट पुस्तकोंके द्वारा इस तरहका उद्देश्य साधित हो तो उनका रचा जाना एकदम अनुचित नहीं कहा जासकता। और, इस समय जिन सब बातोंकी आलोचना हो रही है उनके अनुसार जिस पुस्तकके द्वारा उक्त उद्देश्यके सिद्ध होनेमें सहायता हो उसकी रचनाको मैं निष्फल नहीं समझूगा। किन्तु जो पुस्तकें केवल निकृष्ट नहीं, स्पष्ट रूपसे अनिष्ट करनेवाली हैं, और सर्व साधारणकी कुरुचि और कुप्रवृत्तिको उत्तेजित करके लोगोंको कुपथगामी बनाती हैं, समाजको कुशिक्षा देती हैं, वे उत्कृष्ट पुस्तकोंकी रचनाके लिए क्षेत्र तैयारकरें या न करें, अपनी दुर्गन्धसे चारोंओरकी हवाको दूषित करके समाजमें संपूर्ण मानसिक और अध्यात्मिक व्याधियाँ अवश्य उत्पन्न करती हैं, इसमें सन्देह नहीं। इसीलिए उस तरहके ग्रन्थोंकी रचना अत्यन्त अनुचित है।
(५) पुस्तकालय भी शिक्षाके लिए प्रयोजनीय है। एक ओर जैसे कहा गया है
पुस्तकस्था तु या विद्या परहस्तगतं धनम् । कार्यकाले समुत्पन्ने न सा विद्या न तद्धनम् ॥