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ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
अधिक होती आ रही हैं कि उन सबकी आलोचना करनेसे आईनकी पुस्तक बड़ी हुए विना काम नहीं चल सकता । लेकिन सब विषयोंको श्रेणीबद्ध करनेसे और वक्तव्य बातोंका और प्रयोग करने योग्य नजीरोंका सारांश सुश्रृंखलाके साथ विवृत्त करनेसे पुस्तक यथेष्ट संक्षिप्त हो सकती है। .
२ पुस्तककी भाषा और रचनाप्रणाली । विषय-भेद तथा ग्रन्थकारकी प्रकृति और रुचिके भेदसे अवश्य ही पुस्तककी भाषा अनेक प्रकारकी होगी। भाषा अनेक प्रकारकी न होकर अगर सर्वत्र एक ही प्रकारकी होती तो ग्रन्थ. पाठका सुख, एक ही व्यंजनके साथ आहार करनेके सुखकी तरह, संकीर्ण हो जाता।
लेकिन उन सब वांछनीय विषमताओंके बीचमें एक तुल्य-वांछनीय समता सर्वत्र रहनी चाहिए। वह समता है भाषाकी सरलता और स्वाभाविकता । ग्रन्थकारकी प्रकृति और रुचि चाहे जसी हो, किन्तु सभी ग्रन्थकार यह चाहते हैं कि उनकी भाषा सुन्दर और हृदयग्रहिणी हो । किन्तु भाषाके लिए उसका सरल होना भी आवश्यक है। कारण, इस जगहपर सरलता ही सौन्दर्यका मूल है। और, अलंकारकी अधिकतासे भाषाका सौन्दर्य घटनके सिवा बढ़ता नहीं है । भाषा वही हृदयग्राहिणी होगी जो स्वाभाविक होगी। भाषा अगर स्वाभाविक नहीं है, वह सजावट और भावभंगीसे परिपूर्ण है, तो वह कौतुक बढ़ानेवाली भले ही हो, किन्तु हृदयको नहीं स्पर्श कर सकती। मनुष्योंमें परस्पर प्रकृति और रुचिका भेद चाहे जितना क्यों न हो, वह सब एक प्रकारका बाहरी भेद है। इस प्रकारकी सब विषमताओंके बीचमें, भीतर सभी मनुष्योंके एक प्रकारकी समता है। हमारे अन्तर्निहित गंभीर भाव उसी साम्यमें स्थापित हैं। इसके सिवा भाषा और भाव दोनों में परस्पर विचित्र रूपका सम्बन्ध है। भाषा जो है वह भावका एक प्रकारसे स्फुरणमात्र है। अतएव जो भाषा मनुष्यके अन्तर्निहित उसी गंभीर भावका स्फुरण है, वह मनुष्यमात्रके हृदयको स्पर्श करती है, अर्थात् उसपर असर डालती है। वह भाषा ही यथार्थ मन्त्र है। वही मनुष्यको मन्त्र-मुग्ध बना देती है। वैसी भाषा लिखनेकी योग्यता प्रतिभाके ही बलसे उत्पन्न होती है। शिक्षा, अभ्यास और यत्नसे भी कभी कभी वह योग्यता उत्पन्न हुआ करती है। किन्तु जिसे उस मन्त्रसदृश भाषापर अधिकार नहीं प्राप्त होता, अर्थात् वैसी