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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय ।
रके अन्यान्य कठिनतर कामों से एक काम है। ऐसी जगहएर दोनों ही गुणोंको यथासंभव एकत्र करनेकी चेष्टा करना, अर्थात् दोनों ओर दृष्टि रखकर चलना ही कर्तव्य है। यह बात न होनेसे, हमारे सूत्र-ग्रन्थों मेंसे अधिकांशका ही यह हाल है कि उनमें अक्षर या शब्द तो स्वल्प अवश्य हैं; लेकिन वे असन्दिग्ध नहीं हो सके-भाष्यकारोंने एक एक सूत्रके अनेक परस्पर-विरुद्ध भाष्य किये हैं।
प्राचीन सूत्र-ग्रन्थोंकी तरह आधुनिक पुस्तकोंके संक्षिप्त होनेकी भी जरूरत नहीं है, और आजकलके अति-विस्तृत ग्रन्थोंकी तरह बड़ा होना भी बांछनीय नहीं है । मॅझोला आकार होना ही अच्छा होगा।
एक बात बार बार कहकर ग्रन्थका कलेवर बढ़ाना युक्तिसंगत नहीं है। एक बातको एक बार स्पष्ट करके कह देनेसे जो फल होता है; बहुत बार अस्पष्ट भावसे कहनेमें भी वह फल नहीं होता। ऊँचे स्वरसे एक बार पुकारनेसे जिसे पुकारो वह सुन लेता है, किन्तु धीरे धीरे उसे दस बार पुकारनेसे भी वह कभी नहीं सुन पावेगा। जो अच्छी तरह कह सकता है, वह कहनेकी बातको एक बार कह कर ही सन्तुष्ट हो जाता है। जो अच्छी तरह कह नहीं सकता, वह एक बातको घुमा फिरा कर दस बार कहता है और फिर भी सन्तुष्ट नहीं होता, उसे यही जान पड़ता है कि वह अपने वक्तव्यको अच्छी तरह नहीं कह पाया।
जान पड़ता है, दो-एक तरहकी पुस्तकोंका आकार बड़ा होना अनिवार्य है। जैसे-चिकित्साशास्त्रकी और आईन कानूनकी पुस्तकें । रोग इतने प्रकारके हैं; और एक ही रोग इतने विभिन्न रूप धारण करता है, दवाएं भी इतनी तरहकी हैं; और अवस्था-भेदके अनुसार उनके प्रयोगके भी इतने विभिन्न प्रकार हैं कि उनका संपूर्ण सूक्ष्म विवरण देनेमें अवश्य ही पुस्तकका कलेवर बहुत बढ़ जायगा। लेकिन उस विवरणको सुश्रृंखलाबद्ध करनेसे वह पुस्तक कहाँतक संक्षिप्त हो सकती है, यह बात चिकित्सक महाशय ही कह सकते हैं। ___ आईन-कानूनके विषयका भी चाहे जो विभाग ले लीजिए, वह इतना विस्तृत है, और उसकी एक एक बात इतने भिन्न भिन्न भावोंसे भिन्न भिन्न स्थलों में उपस्थित हो सकती है, और उसके सम्बन्धकी नजीरें क्रमशः इतनी