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१२६ ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग इस सुख-दुःखमय जगत्में सभी जीव सुखलाभ और दुःखनिवारणके लिए निरन्तर यत्न करते देखे जाते हैं-सदा इसीमें लगे रहते हैं, सुतराँ शिक्षा सुखदायिनी हो, इस विषयमें शिक्षार्थी और यथार्थ शिक्षा देनेवाला, दोनों यत्न करें तो कुछ विचित्र नहीं। बल्कि यही आश्चर्यकी बात है कि शिक्षक लोग समय समय पर इस बातको भूलकर समझने लगते हैं कि शिक्षाप्रणालीकी कठोरता बढ़ानेसे ही वह आधिक काम करनेवाली होजायगी। यह बात संपूर्णरूपसे भ्रमपूर्ण है। यह सच है कि कठोरता सहनेकी और सुखदुःखको समानभावसे देखनेकी क्षमता जो है वह देह, मन और आत्माके चरम या परम उत्कर्षलाभका फल है, और वही उत्कर्षसाधन शिक्षाका उद्देश्य है। और यह भी सच है कि शिक्षार्थीको सुखाभिलाषी होने देना उचित नहीं। किन्तु इसी कारण शिक्षाको सुखकर न बनाकर कठोर बनाना होगा, यह ख्याल ठीक नहीं है। जरा सोचकर देखनेसे ही यह बात समझमें आजाती है। सुखके लिए अधिक लालसा अच्छी नहीं है, यह बात अगर ताड़नाके द्वारा छात्रको सिखाई जाय, तो यद्यपि शिष्य गुरुके भय या अनुरोधसे मुंहसे उसके उपदेशको भला कह कर स्वीकार कर ले, तथापि उसके मनके भीतर सुखकी लालसा बनी ही रहेगी। किन्तु वही बात अगर मधुरशब्दों में कारण दिखाकर और हृदयग्राही दृष्टान्तके द्वारा इस तरह समझा दी जाय कि शिक्षार्थी अपने ज्ञानसे समझ सके कि सुखकी अधिक लालसा सुखका कारण न होकर दु:खका ही कारण होती है तो वह लालसा उसके मनसे अवश्य दूर हो जायगी। जहाँ शिष्यके किसी विषयमें प्रवृत्त या निवृत्त होनेका कारण केवल गुरुकी आज्ञा है वहाँ वह प्रवृत्ति या निवृत्ति अन्यके अनुरोधका फलमात्र है, और वह संपूर्ण सुखकर न होकर कुछ कष्टकर हो जाती है। किन्तु यदि शिष्य समझ सके कि यह कार्य मुझे करना चाहिए या न करना चाहिए, और इसी बोधके अनुसार वह उसमें प्रवृत्त या निवृत्त हो तो उसकी वह प्रवृत्ति या निवृत्ति अपनी इच्छासे उत्पन्न होनेके कारण कष्टका कारण नहीं होती। यहाँ मनुका यह अमोघ वाक्य स्मरण रखना चाहिए कि
सर्व परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम् । एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥
[ मनु ४।१६०]