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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय |
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अर्थात् जो परवश है वह सब दुःख है, और जो अपने वश है वह सब सुख है। सुखदुःखका यह संक्षिप्त और सर्वव्यापी लक्षण समझना चाहिए ।
प्रथम तो हम लोगों में आदेश या विधि - निषेधका कारण विचारनेकी क्षमता रहती नहीं, और बाल्यकालमें गुरुके प्रति दृढ़ भक्ति और स्नेह और अविचलित तथा प्रफुल्ल चित्तसे उनकी आज्ञाका पालन करना शिक्षाका अवश्य कर्तव्य है, और वही शिक्षालाभका अनन्य उपाय है । इसी कारण कहता हूँ कि शिक्षा में कठोरताका रहना उचित नहीं है । कारण, शिक्षामें कठोरता रहनेसे गुरुके प्रति वह गहरी भक्ति और स्नेह और उनकी आज्ञाके पालनमें दृढ अविचलित और प्रफुल्लभाव पैदा ही नहीं हो सकता । शिक्षा जब कोमल भाव धारण करती है तभी शिक्षार्थीके मनमें उस तरहकी गुरुभक्ति और गुरुके उपदेश - आदेशका पालन करनेमें स्वतःप्रवृत्त तत्परता उत्पन्न हो सकती है ।
अगर यही ठीक हुआ कि शिक्षा सर्वथा सुखकर होना उचित है, तो प्रश्न यह उठता है कि किस तरह शिक्षा सुखकर बनाई जा सकती है ? यह प्रश्न बिल्कुल सहज नहीं है । एक तरफ, शिक्षाका उद्देश्य शिक्षार्थीका ज्ञानलाभ और उत्कर्षसाधन है, और वह उद्देश्य सफल बनानेके लिए शिक्षार्थीका श्रम और क्लेश स्वीकार करना और अपनी इच्छाको संयत करके अन्यकी अर्थात् गुरुकी इच्छाके अनुगामी होकर चलना आवश्यक है, अतएव दूसरेकी अधीनतासे उत्पन्न होनेवाला दुःख अनिवार्य है, दूसरी तरफ, शिक्षाको सुखकर बनाने में शिक्षार्थीको अपनी इच्छा के अनुसार चलने देना आवश्यक है । इन दोनों विपरीत पक्षोंमेंसे किस पक्षकी रक्षा की जायगी ? संसारके अन्यान्य संकटस्थानों में यह शिक्षाके विषयका संकट बिल्कुल तुच्छ नहीं है, और इसी कारण इसके सम्बन्ध में इतना मतभेद है । दोनों तरफ दृष्टि रखकर जिसमें गरिष्ठ फलका लाभ हो उस राहमें चलना होगा । असल बात यह है कि ऊपर उद्धृत कियेगये मनुके वाक्यमें जो आत्मवश्यताका उल्लेख है वह हमारी अपूर्णताके कारण दुर्लभ है । जब यह अपूर्णता और उसके साथ साथ अपने-परायेके भेदका ज्ञान चला जायगा और 'सब कुछ ब्रह्ममय है ' ऐसी धारणा हो जायगी तभी परवशका बोध और उससे उत्पन्न दुःखका नाश हो जायगा और सब कुछ सुखमय और आनन्दमय जान पड़ेगा किन्तु यह