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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय ।
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__ दूसरे प्रकारके प्रयोजनीय ज्ञानके विषयके सम्बन्धमें अधिक बातें कहनेका प्रयोजन नहीं है-दो-एक दृष्टान्त दे देना ही यथेष्ट होगा। जैसे, चिकित्सकके लिए जीवनी शक्तिकी क्रिया समझनेके वास्ते कुछ जीवतत्त्व-और औषध आदि पहचानने और द्रव्य आदिके दोष-गुण समझनेके वास्ते कुछ उद्भिज और खनिज द्रव्योंके विषयका शास्त्र जानना परम आवश्यक है। वकील-बैरिस्टर आदिके लिए आईनकी संगति-असंगति और उसके शासनाधिकारकी सीमाका विचार करनेके लिए कुछ न्याय और राजनीति जानना अत्यन्त आव-- श्यक है । इत्यादि।
सर्वाङ्गीन उत्कर्ष क्या है, यह जानना हो तो स्मरण रखना चाहिए कि. मनुष्यके देह, मन और आत्मा है, अर्थात् दैहिक शक्ति, मानसिक शक्ति और आध्यात्मिक शक्ति है। अगर कोई जड़वादी कहे कि मानसिक शक्ति और आध्यात्मिक शक्ति दोनों दैहिक शक्तिसे उत्पन्न और उसीके रूपा-- न्तर हैं, तो उसके इस कथनसे यहाँपर कोई हानि नहीं है। कारण, ये तीनों तरहकी शक्तियाँ मूलमें एक ही हों और चाहे अलग अलग हों, इनके कार्योंकी परस्पर विभिन्नता अवश्य ही स्वीकार करनी होगी। कोई दैहिक. शक्ति यथेष्ट धारण करता है,भारी बोझ उठा सकता है, बहुत दूरतक तेजीसे. दौड़ सकता है, किन्तु अत्यन्त सरल विषयको भी सहजमें नहीं समझ सकता,
और किसी न्यायसंगत कार्यके करनेमें यत्नशील नहीं हो सकता । कोई कोई बुद्धिमान होनेपर भी न्यायपरायण या सबल नहीं हैं। कोई सबल और. बुद्धिमान होनेपर भी न्यायपरायण नहीं हैं। अतएव सर्वांगीन उत्कर्ष उसी स्थानपर सुसंपन्न हुआ समझना चाहिए जहाँ देहका बल, मनकी मार्जित बुद्धि
और आत्माकी निर्मलता अर्थात् न्यायनिष्ठा है। जिस शिक्षाके द्वारा ये तीनों गुण प्राप्त होते हैं वही यथार्थ शिक्षा है।
(३) शिक्षाप्रणालीकी आलोचनामें पहले शिक्षाका उद्देश्य क्या है, और दूसरे उस उद्देश्यके अनुसार शिक्षा में अत्यन्त आवश्यक विषय क्या क्या हैं, इन दोनों बातोंके सम्बन्धमें कुछ कुछ कहा गया । शिक्षाप्रणालीके संबंध इनके सिवा तीसरी बात यह है कि शिक्षाको यथाशक्ति सुखदायिनी बनाना. उचित है।