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छठा अध्याय ] ज्ञान-लाभके उपाय ।
११५ हैं ? इसी कारण मनुष्य जितनी जल्दी धर्मनीतिकी आलोचना और सत्कर्मका अभ्यास आरंभ कर सके उतना ही अच्छा।
(२) शिक्षाकी प्रणाली । शिक्षाके विषयके सम्बन्धमें ऊपर कुछ कहा गया है। शिक्षाके विषय असंख्य हैं; उनमेंसे केवल कई एक शास्त्र या विद्याके सम्बन्धमें दो-एक बातें कही गई हैं। अब शिक्षाकी प्रणालीके सम्बन्धमें कुछ आलोचना की जायगी।
शिक्षाके विषय जब इतने विस्तृत हैं, और उन अनेक विषयोंका कुछ कुछ ज्ञान प्राप्त करना जब सभीके लिए आवश्यक है, तब यह प्रश्न सभीके मनमें उठेगा कि किस प्रणालीसे शिक्षा देनेसे थोड़े समय और थोड़े श्रममें, सीखनेवाला अधिक विषय सीख सकता है ? इस प्रश्नका ठीक उत्तर पानेके लिए भी अवश्य ही सबके मनमें आग्रह उत्पन्न होगा। प्राचीन समयसे सभी देशोंमें इस प्रश्नकी आलोचना होती आरही है, और बुद्धिमान् लोगोंने समय समय पर इस विषय पर अनेक प्रकारके मत प्रकट किये हैं। उन सब मतोंकी अच्छी तरह आलोचना करना, या उनका पूरा ब्योरा लिखना, इस ग्रन्थका उद्देश्य नहीं है। इस जगह पर केवल संक्षेपमें उन सब मतोंका उल्लेख करके शिक्षाप्रणालीके संबन्धमें जिन जिन मूलतत्त्वों तक पहुँचा जाता है, वही लिखा जायगा। __ प्राचीन भारतमें ब्राह्मणोंकी शिक्षा ही आदर्शशिक्षा गिनी जाती थी। उस • शिक्षाका उद्देश्य, सीखनेवाले विद्यार्थीके हृदयमें धर्मभावका उद्रेक और उसे ब्रह्मज्ञानका लाभ होना ही था । और, उस शिक्षाकी प्रणाली थी कठोर ब्रह्मचर्यपालन द्वारा शिक्षार्थीके शरीर और मनको संयत करके और उसमें अटल गुरुभक्ति उत्पन्न करके उसे शिक्षालाभके योग्य बना लेना (.)। लौकिक विद्याओंकी आलोचना भी अवश्य होती थी (२), किन्तु वैदिक और आध्यात्मिक ज्ञानका लाभ ही शिक्षाका प्रधान उद्देश्य था । दैहिक उत्कर्षसाधन पर भी ध्यान अवश्य था । ब्रह्मचर्यपालन और संयमके अभ्याससे वह उद्देश्य आप ही बहुत कुछ सिद्ध हो जाता था। कर्मकी अपेक्षा ज्ञानकी श्रेष्ठता स्वीकृत
(१) मनुसंहिताका दूसरा अध्याय और छान्दोग्य उपनिषद् ५।३ देखो । (२) मनुसंहिताका दूसरा अध्याय, ११७ वा श्लोक देखो।