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ज्ञान और कर्म ।
[ प्रथम भाग
सब कारणोंसे, राजनीतिके अत्यन्त गहन होने पर भी, उसके मूल तत्त्वोंको कुछ कुछ जानना सबके लिए उचित है । कमसे कम यह बात जानना सभीके लिए आवश्यक है कि राजा केवल देशकी शोभाके लिए या उसकी अपनी सुख-स्वच्छन्दता और अन्यके ऊपर हुकूमतका उपयोग करनेके लिए नहीं होता । देशकी शान्तिरक्षाके लिए ही उसका अस्तित्व है, और इसी लिए उसका प्रभाव अखण्डित रहना अत्यन्त आवश्यक है ।
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व्यवहारनीति (कानून) राजनीतिका एक अति प्रयोजनीय अंश है । प्रजामें परस्पर होनेवाले विवाद की मीमांसा के लिए व्यवहारशास्त्रकी सृष्टि हुई है । यह केवल व्यवहारजीवी ( वकील - बैरिस्टर ) लोगोंकी ही विद्या नहीं है । हरएक व्यक्तिको इस शास्त्रका कुछ ज्ञान रहना चाहिए । कारण, स्वत्व-अस्वत्वको लेकर हरएक व्यक्तिका औरके साथ झगड़ा होना संभव है ।
धर्मनीति सब शास्त्रोंके ऊपरका शास्त्र है । जो लोग ईश्वरवादी हैं, अर्थात् ईश्वरको जगत्का आदिकारण मानते हैं, उनके मतमें ईश्वर की प्राप्ति ही जीवका चरम लक्ष्य है । इसलिए धर्मनीतिके ही द्वारा उनके सब कार्य अनुशासित होते हैं ।
जो लोग ईश्वरको नहीं मानते, उनके मत में धर्मनीति और आचारनीति एक ही है । किन्तु वे जब सदाचार अर्थात् न्यायपरताको मनुष्यके सब कार्योंका श्रेष्ठ नियम मानते हैं, तब उनके मत में भी धर्मनीति और आचारनीति सब शास्त्रोंके ऊपरका शास्त्र है ।
धर्मनीतिका ईश्वरतत्त्व, ब्रह्मतत्त्व, अर्थात् ज्ञानविभागका एक अंश, अति कठिन है । किन्तु उसका दूसरा अंश अति सहज है । कौन कार्य उचित है और कौन कार्य अनुचित है, यह जानना अधिकांश स्थलोंमें ही अति सहज है । किन्तु उस ज्ञानके अनुसार कार्य करना अनेक स्थलोंमें ही कठिन है । इसका कारण यह है कि ज्ञानकी अपेक्षा कर्म कठिन होता है । ज्ञानको कार्य में परिणत करनेके लिए अनेक दिनोंका अभ्यास आवश्यक हुआ करता है । एक साधारण दृष्टान्त में यह बात स्पष्ट देखी जाती है । यह हम सब जानते हैं कि सरलरेखा किसे कहते हैं, और वह किस तरह खींची जाती है । किन्तु कुछ -लंबी सरल रेखाको किसी यन्त्रकी सहायताके बिना के आदमी खींच सकते