________________
छठा अध्याय ज्ञान-लाभके उपाय।
११३ प्रयोजन क्या है और उसका मूल कहाँ है, अर्थात् एककी स्वाधीनतापर अन्यके शासन करनेका प्रयोजन क्या है और वह अधिकार किस सूत्रसे है, किस प्रणालीसे वह शासन अच्छा होता है, इन सब तत्त्वोंका निर्णय राजनीतिका मूल उद्देश्य है । सभी मनुष्य स्वाधीनता-प्रिय और स्वाधीनताके अधिकारी हैं, साथ ही एककी पूर्ण स्वाधीनता अन्यकी पूर्ण स्वाधीनताका वि. रोध करती है। कारण, एक व्यक्ति अगर किसी रम्य स्थान या भली वस्तु पर अधिकार करना चाहे तो और कोई उस समय उस पर अपना अधिकार नहीं स्थापित कर सकता। इस तरहके परस्परकी स्वाधीनताके विरोधकी मीमांसा, अर्थात् स्वाधीनताका शासन, सहज मामला नहीं है। उसके ऊपर फिर मनुष्यगण नानादेशवासी हैं, और भिन्न भिन्न देशवासियोंका स्वार्थ भी विभिन्न और अनेक स्थलोंपर परस्परविरुद्ध है। एक देशके रहनेवालोंमें भी विभिन्न समाज, विभिन्न धर्म, विभिन्न जातीय भाव इत्यादि अनेक प्रकारके अलगावके कारण उनके स्वार्थमें परस्पर विरोध पाया जाता है। इन सब अनेक प्रकारके विरोधोंके घात-प्रतिघातसे इस पृथ्वीपर मनुष्योंका परस्परका सम्बन्ध असंख्य-विचित्र-आवर्तसंकुल और अतिजटिल हो रहा है । इसी लिए राजा और प्रजाके सम्बन्धका विचार और शासनप्रणालीके नियमोंका निरूपण एक अत्यन्त कठिन मामला है । अथच इस सम्बन्धविचार और नियमनिरूपणके कार्यके साथ जब हम लोगोंका परम प्रिय स्वार्थ, अर्थात् अपनी स्वाधीनता, जकड़ी हुई है, और उसके संकीर्ण होनेकी आशंका मौजूद है, तब मनुष्यकी स्वभावसिद्ध स्वार्थपरता हम लोगोंको मोहान्ध कर सकती है, और उसके द्वारा इस आलोचनामें पग पग पर हमारे भ्रान्त होनेकी अधिक संभावना है। फिर इस सम्बन्ध-विचार और नियम-निरूपणमें कोई गुरुतर भ्रम रहजानेसे बहुत कुछ अनिष्ट हो सकता है। राजा या राजशक्ति अगर न्यायके अनुसार कार्य नहीं करती तो प्रजामें असन्तोष पैदा हो जाता है। उधर प्रजा अगर न्यायानुमोदित राजभक्तिसे हीन होती है और राजशासनको नहीं मानती तो फिर राजा शान्तिरक्षाके नाम पर शासनको अधिकतर दृढ़ और कठोर कर देता है । बस, राजा और प्रजामें असद्भाव (मन-मोटाव ) बढ़ता रहता है, और उसके कारण देशमें अनेक प्रकारकी अशान्ति पैदा होती रहती है। इन
ज्ञान०-८