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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
अनुमोदित है, ऐसा मानना पड़ेगा । अब प्रश्न उठता है कि उस इच्छाका मूल कहाँ है ? इसके उत्तरमें कहा जा सकता है कि लोगोंकी इच्छाका मूल उनके पहलेके संस्कार शिक्षा और वर्तमान प्रयोजन है। कुछ सोचकर देखनेहीसे समझमें आजाता है कि हमारी इच्छा भी हमारी इच्छाके अधीन अर्थात् स्वाधीन नहीं है,वह कार्य-कारण सम्बन्धी नियमके अधीन है। पहले जिन कई एक मूलों या कारणोंका उल्लेख किया गया है, उन्हींसे हमारी इच्छा उत्पन्न है । समाजनीतिका अनुशीलन और संशोधन करनेमें उस नीतिके मूल पर दृष्टि रखना. आवश्यक है। अगर उस पर दृष्टि नहीं रक्खी गई तो उस अनुशीलन और संशोधनकी चेष्टा फलप्रद नहीं हो सकती।
अर्थनीति और एक प्रयोजनमें आनेवाली बहुत जरूरी विद्या है। कोई कोई इसे निकृष्ट विद्या कहते हैं; पर उनका यह कथन ठीक नहीं है । कोई विद्या अर्थात् ज्ञान निकृष्ट नहीं हो सकता । हाँ, अर्थनीतिका भ्रांत अनुशीलन
और अर्थ ( दौलत ) का एकान्त अनुसरण निकृष्ट हो सकता है । यहाँ पर अर्थशब्दसे केवल रुपए-पैसेका बोध नहीं होता, उसका अर्थ मूल्यवान् सम्पत्तिमात्र समझना चाहिए। अगर यही बात है, तो कमसे कम अर्थनीतिका कुछ अनुशीलन तो मनुष्यमात्रके लिए अति आवश्यक है। कारण, देहधारी मनुष्यके शरीरकी रक्षाके लिए जिन सब वस्तुओंका अत्यन्त प्रयोजन है, वे प्रायः सभी मूल्यवान् हैं, कुछ भी बिना मूल्य नहीं मिलता। यहाँतक कि निर्मल वायु और उज्वल प्रकाश भी जनसमूहपरिपूर्ण और घनी बस्ती या असंख्य इमारतोंवाले नगरमें बिना मूल्य दुष्प्राप्य होता है । किस नियमसे वस्तुका मूल्य कम-ज्यादह होता है ? कहाँतक धनी लोग श्रमजीवियोंसे अपने लाभके लिए मेहनत करा सकते हैं ? राजशासन ही कहाँतक अर्थनीतिके क्षेत्रमें प्रयोजनीय या सुसंगत है ?-इत्यादि प्रश्नोंका उत्तर कुछ कुछ जानना सभीके लिए कर्तव्य है।
राजनीति अत्यन्त गहन शास्त्र है। तत्त्वका निर्णय सर्वत्र ही दुरूह है, किन्तु अन्याय शास्त्रोंकी अपेक्षा इस शास्त्रके अधिक दुरूह होनेका कारण यह है कि जिन सब तत्त्वोंका निर्णय इस शास्त्रका उद्देश्य है वे अति जटिल हैं, और उनके अनुशीलनमें भ्रममें पड़ जाना बहुत सहज है। राजशक्तिका