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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
होनेपर भी, कर्मफल अवश्य भोगना पड़ता है-इस समझके कारण, असत् कर्मका त्याग और सत्कर्मका आचरण शिक्षाका एक अंश था । ऐहिक सुखकी अनित्यताका बोध प्रबल होनेके कारण जड़जगत्के तत्त्वोंकी खोजके प्रति अवहेला और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने में एकाग्रता उत्पन्न हुई, और उसका फल यह हुआ कि भारतके बुद्धिमानोंने आध्यात्मिक तत्त्वके अनुशीलनमें असाधारण उन्नति कर ली, किन्तु देशकी आर्थिक और औद्योगिक अवस्था दिन दिन अवनत होती गई। चैतन्यजगत् जड़जगत्से श्रेष्ठ होने पर भी, ईश्वरकी सृष्टिकी एकताका नियम ऐसा विचित्र है कि उसके सभी अंश परस्पर एक दूसरकी अपेक्षा रखते हैं और किसी भी अंशकी अवहेला करनेसे उसका प्रतिफल अवश्य ही भोगना पड़ता है।
प्राचीन ग्रीसमें, शिक्षार्थी जिसमें ज्ञानी हो सके उसी ओर प्रधानरूपसे शिक्षाका लक्ष्य था, और शिक्षाप्रणाली भी उसके उपयोगी थी। प्राचीन रोममें शिक्षार्थीको प्रधानरूपसे कर्मनिष्ट बना लेना ही शिक्षाका उद्देश्य था।
युरोपमें, मध्ययुगमें ग्रीस और रोमकी चलाई हुई प्रणाली, और ईसाई धर्मके अभ्युत्थानमें नवीन धर्मभावसे प्रेरित चिन्ताका स्रोत, इन दोनोंके मिलनेसे शिक्षा-प्रणालीने एक नया भाव धारण किया, और उसमें पहलकी अपेक्षा आध्यात्मिक तत्त्वके अनुशीलनकी कुछ अधिकतर प्रधानता देख पड़ती है। किन्तु इस प्रणालीमें कई एक भारी दोष थे। एक तो शिक्षा प्रधानरूपसे शब्दगत थी, अर्थात् जितनी शब्दगत थी उतनी वस्तुगत नहीं थी। शब्दोंकी मारपेंच, व्याकरणके विधि-निषेध और न्यायके तर्क-वितर्कमें ही विद्यार्थीका अधिक समय बीत जाता था । यथार्थ वस्तु या पदार्थके ज्ञानकी ओर उतनी दृष्टि नहीं रक्खी जाती थी। दूसरे, बहिर्जगत् और अन्तर्जगत् दोनोंके तत्त्वोंकी खोजमें पर्यवेक्षण तथा परीक्षाकी सहायता न लेकर केवल चिन्ता और तर्कके द्वारा ज्ञान प्राप्त करनेके प्रयासकी शिक्षा दी जाती थी, और वह प्रयास प्रायः निष्फल ही हीता था। तीसरे, शिक्षाके वस्तुगत न होकर शब्दगत होनेसे, और पर्यवेक्षण तथा परीक्षाके बदले केवल चिन्ता और तर्कका साहाय्य लेनसे, उसका फल यह हुआ था कि वह शिक्षा, नये नये ज्ञानके लाभसे उत्पन्न आनन्दकी खान न होकर, नीरस रटन्त और निष्फल चिन्ताके. परिश्रमसे उत्पन्न कष्टका कारण हो उठी थी।