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छठा अध्याय ] ज्ञान-लाभके उपाय ।
१०३ है कि आहार और कसरत, नींद और विश्रामके बारे में नियमपूर्वक चलनेसे ही शरीर और मनकी अवस्था ज्ञानोपार्जनके उपयुक्त हो सकती है। संक्षेपमें यह कहा जा सकता है कि ब्रह्मचर्यपालन और आहार-निद्राका संयम ही शिक्षार्थीके लिए प्रशस्त नियम है।
सहज अवस्थामें अनेक शारीरिक नियमोंका लंघन भी किया जाय तो वह सह्य होता है, और अनेक सहज कार्यों में विना शारीरिक शिक्षाके एक प्रकारसे काम भी चल जाता है। किन्तु इसी लिए यह नहीं कहा जा सकता कि शारीरिक नियमोंका पालन और शारीरिक शिक्षा आवश्यक नहीं है। नियमित आहार, व्यायाम और विश्रामके द्वारा अनेक दुर्बल शरीर सबल हो जाते हैं। हाथों और आँखोंकी सुशिक्षाके द्वारा लोग चित्र खींचनेमें अद्भुत निपुणता प्राप्त करते हैं। पक्षान्तरमें न सीखनेसे चित्र खींचना तो दूर रहा, एक सीधी लकीरें भी नहीं खींची जाती ।
मन जैसे शरीरकी अपेक्षा सूक्ष्म पदार्थ है, वैसे ही मानसिक शिक्षा भी शारीरिक शिक्षाकी अपेक्षा कठिन विषय है। यहाँ पर मानसिक शिक्षाका उस अर्थमें व्यवहार नहीं किया गया है जिस अर्थका बोध विद्याशिक्षा कहनेसे होता है। भिन्न भिन्न विद्याकी शिक्षा कहनेसे, जगत्के भिन्न भिन्न विपयोंके ज्ञानकी प्राप्ति, यह अर्थ भासित होता है, किन्तु मानसिक शिक्षा यह वाक्य उसके अतिरिक्त और कुछका भी बोध कराता है, अर्थात् ज्ञानलाभ और ज्ञानलाभकी शक्तिको बढ़ाना-इन दोनोंका बोध कराता है। पर कही गई विशेष विशेष विद्याओंको सीखनेसे साथ ही साथ अवश्य ही मानसिक शिक्षा प्राप्त होती है। जैसे, दर्शनशास्त्र या गणितकी शिक्षाके साथ साथ बुद्धिका विकास होता है, इतिहास पढ़नेसे अभ्यासके द्वारा स्मृतिशक्तिकी वृद्धि होती है। किन्तु यह होने पर भी भिन्न भिन्न विद्या सीखनेके साथ साथ मानसिक शिक्षा पर अलग दृष्टि रखनेकी आवश्यकता है । क्योंकि यद्यपि विद्या-शिक्षा अक्सर मानसिक शक्तिको बढ़ती ही है, मगर कभी कभी उससे इसके विपरीत फल भी उत्पन्न होता है । लगातार एक विद्याकी आलोचना करते रहनेसे यद्यपि मनुष्य उस विद्यामें पारंगत हो सकता है, किन्तु मनकी साधारण शक्ति उसके द्वारा बढ़नेके बदले घट ही जाती है। और, इस तरह ' पढ़े