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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
लिए अत्यन्त अनिष्टकर है (.)। यह बात विद्यार्थियोंको अच्छी तरह समझा देना उचित है।
अनेक विद्यार्थी परीक्षाका समय निकट आनेपर पाठ याद करनेके लिए अधिक रात तक जगते हैं। वे यह नहीं समझते कि उससे पाठ याद करनेमें यथार्थ सुविधा नहीं होती। अधिक रात तक जगने में केवल शरीर ही असुस्थ नहीं होता; उससे मन भी असुस्थ हो जाता है और कोई विषय समझने और स्मरण रखनेकी शक्ति घट जाती है । बस, अधिक रात तक जगकर पाठ याद करनेसे अधिक कार्य नहीं होता, विपरीत फल ही होता है। किन्तु केवल छात्रोंको दोष देना उचित नहीं है। जिन लोगोंके ऊपर परीक्षाके नियम बनाने और पाठ्य विषयकी पुस्तकें निश्चित करनेका भार है, उनका भी यह देखना कर्तव्य है कि छात्रोंके ऊपर उनके बितबाहर अपरिमित बोझ न लद जाय।
निद्राकी तरह विश्रामका भी प्रयोजन है। कारण, विश्राम न करनेसे मनुष्य थक जाता है, और अल्प समयमें अधिक काम नहीं किया जासकता । लेकिन विश्रामका अर्थ आलस्य नहीं है। आलस्यसे कोई उपकार नहीं होता, और सत्य ही " न हि कश्चित् क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् ” (गीता ३।५) अर्थात् , कोई क्षणभर भी एकदम निष्कर्मा होकर बैठ नहीं सकता। नियमित रूपसे काम करना, और एक प्रकारके कार्यको ही बहुत देरतक न करके, भिन्नभिन्न समयमें भिन्नभिन्न कार्यों में लगना ही थकावट दूर करनेका एकमात्र उपाय है (२)।
अनेक लोग समझ सकते हैं कि ज्ञानलाभके लिए इतने शारीरिक नियम पालनका प्रयोजन नहीं है, बुद्धि अगर है तो शरीर जब तक निपट अस्वस्थ नहीं होता तब तक ज्ञानलाभमें कोई बाधा नहीं पड़ती। लेकिन यह समझना भूल है। असाधारण बुद्धिमान् और मेधावीके लिए, शरीरकी अवस्था अच्छी न रहने पर ज्ञानोपार्जनमें अधिक विघ्नकी संभावना नहीं भी हो; किन्तु साधारण व्यक्तिके विषयमें यह बात नहीं कही जा सकती। उसके लिए तो यह बात
(१) Marie de Manaceine's " Sleep " pp. 65-70 देखो। (२) Dr. Henry's Medicine and Mind, Ch. V देखो।