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२०४ ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग लिखे मूर्ख' कहाये जानेवाले एक विचित्र श्रेणीके लोगोंकी सृष्टि होती है। विद्याशिक्षा करके भी अगर मानसिक शिक्षाके अभावसे लोग इस तरह परिहासके पात्र बन सकते हैं, तो वह अत्यन्त आवश्यक मानसिक शिक्षा क्या है, और वह किस तरह पाई जाती है ?-सब लोग उत्सुक होकर यही प्रश्न करेंगे। पहले ही कहा जा चुका है कि मानसिक शिक्षाके माने केवल किसी खास विषयका ज्ञान प्राप्त कर लेना ही नहीं है । सभी विषयोंमें ज्ञान प्राप्त करनेकी शक्ति बढ़ाना ही उसका मूल लक्षण है। अनेक विषयोंको यथासंभव सीखना और सभी विषयोंको यथाशक्ति जान लेनेका अभ्यास ही उस शक्तिको बढ़ानेके उपाय हैं। सब लोग सभी विषयों में निपुणता नहीं प्राप्त कर सकते, किन्तु सभी विषयोंकी सहज बातोंको कुछ कुछ समझनेकी शक्ति सभी प्रकृतिस्थ व्यक्तियोंमें रहनी चाहिए, और थोड़ा सा यत्न करनेसे ही वह शक्ति प्राप्त हो जाती है। विद्याकी अपेक्षा बुद्धि बड़ी है। विद्या कम होती है तो भी लोगोंका काम चल जाता है, लेकिन बुद्धि कम होनेसे काम चलना कठिन है। यथार्थ मानसिक शिक्षाके बिना सहजमें ज्ञानलाभ नहीं होता।
शारीरिक और मानसिक शिक्षाकी अपेक्षा नैतिक शिक्षा अधिकतर प्रयोजनीय है। शरीर सबल और बुद्धि तीक्ष्ण होने पर भी, जिसकी नीति कलुषित है, वह अपने और अन्य सर्वसाधारणके अमंगलका कारण होता है। चाणक्यने यथार्थ ही कहा है
दुर्जनः परिहर्तव्यो विद्ययालङ्कृतोऽपि सन् ।
मणिना भूषितः सर्पः किमसौ न भयङ्करः ।। अर्थात् दुर्जन विद्वान् भी हो तो उसका संग बचाना चाहिए । मणिसे अलंकृत होने पर भी क्या सर्प भयंकर जीव नहीं है ? नैतिक शिक्षा जैसे अतिप्रयोजनीय है वैसे ही कटिन भी है। सुनीति किसे कहते हैं, और दुर्नीति किसे कहते हैं, यह निश्चय करना अक्सर सहज होता है। किन्तु यह होनेपर
भी नैतिक शिक्षाके यों कठिन होनेका कारण यह है कि सुनीति क्या है और 'दुर्नीति क्या है, यह जान लेनेसे ही नैतिक शिक्षालाभका कार्य नहीं सम्पन्न होता। कार्यतः सुनीतिका आचरण और दुर्नीतिका त्याग करना ही नैतिक शिक्षा प्राप्त करनेका लक्षण है और उसी तरहका कार्य कर सकना बहुत यत्न