________________
ज्ञान और कर्म ।
[प्रथम भाग
विद्याका संपूर्ण और न्यायसंगत श्रेणीविभाग एक दुरूह कार्य है। बेकन, कोम, स्पेन्सर आदि विद्वानोंने बहुत यत्न किया, मगर वे भी सर्वथा निर्दोष श्रेणीविभाग किसी तरह नहीं कर सके (१)।
अब शिक्षाके ऊपर कहे गये विषयोंमेंसे किसी किसीके सम्बन्धमें दो-एक बातें कही जायेगी। __ शरीर अच्छा नहीं रहता तो मन भी ठीक नहीं रहता और ऐसे लोग कोई भी काम अच्छी तरह नहीं कर सकते । यह बहुत ही सत्य है कि “शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् "-अर्थात् शरीर ही धर्मका पहला साधन है।
इसी लिए शारीरिक शिक्षा अत्यन्त प्रयोजनीय विषय है। इस स्थलपर शारीरिक शिक्षा कहनेसे केवल व्यायाम ( कसरत ) ही न समझना चाहिए । उपयुक्त आहार करना, उपयुक्त वस्त्र आदि पहनना, यथायोग्य व्यायामका अभ्यास, आवश्यकतानुसार विश्राम लेना, यथासमय सोना आदि जिन सब कामोंके द्वारा शरीरके स्वास्थ्यकी रक्षा हो, शरीर अधिक पुष्ट हो,
और साथ ही मनके उत्कर्षलाभकी राहमें विघ्न न हो बल्कि सहायता हो, उन सब कामोंका करना शारीरिक शिक्षाके अन्तर्गत है।
आहार केवल देहकी रक्षा और उसे अधिक पुष्ट करनेके लिए किया जाता है, और जिस खाद्यके द्वारा यह उद्देश्य सिद्ध हो वही खाया जा सकता है, ऐसा समझना ठीक नहीं। क्योंकि खाद्यके इतर-विशेषसे केवल देहकी अवस्थामें ही इतर-विशेष नहीं होता, उसके द्वारा मनकी अवस्थामें भी इतर-विशेष होता है । अर्थात् मनकी अवस्था भी अच्छे खाद्यसे अच्छी और बुरेसे बुरी होती है। यह सच है कि ईसाने कहा है, " जो मुँहके भीतर डाला जाता है, वह मनुष्यको अपवित्र नहीं करता, बल्कि जो मुँहसे निकलता है वही मनुष्यको अपवित्र करता है" (२)। यह बात देश-काल-पात्रके देखते उस समय यथायोग्य ही कही गई थी। कारण, उस समय यहूदी लोग भीतर पवित्र होनेके प्रयोजनको एक तरहसे भूल गये थे; केवल बाहर पवित्र और आहारमें पवित्र होनेको ही यथेष्ट समझते थे। उनकी शिक्षाके लिए ही यह
(?) Karl pearson's Crammar of Science, 2nd Ed. Ch. XII. और Deussen's Metaphysics, P. 6 देखो। (२) Matthew, XV, II. देखो।