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छठा अध्याय ]
ज्ञान-लाभके उपाय ।
बात कही गई थी। किन्तु यह उपदेश सवसाधारणके लिए नहीं है । देहतत्त्वके ज्ञाता पण्डितोंने ठीक किया है कि खाद्यके ऊपर मनकी अवस्था बहुत कुछ निर्भर है, और मांसाहारी लोग कुछ उग्रस्वभाव और स्वार्थपर होते हैं (७)। नशीली चीजोंके गुण-दोषोंको सभी लोग जानते हैं । मादक पदार्थ सेवन करनेसे कमसे कम कुछ समयके लिए चित्तम विकार अवश्य पैदा होता है, इस बातको कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता। बस, इसी लिए मद्य-मांस वर्जनीय है। इस बात पर कुछ मतभेद अवश्य है, किन्तु हमारे देशके समान ग्रीष्मप्रधान देशमें मद्यमांसके प्रयोजनका अभाव और मद्यमांसके सेवनसे अपकारके सिवा उपकारका न होना, जान पड़ता है, सर्ववादिसम्मत सिद्धान्त है। जो लोग जीवहिंसासे निवृत्त होनेके कारण, अथवा मानसिक उत्कर्ष साधनके लिए, निरामिष आहार करते हैं, उनकी तो कोई बात ही नहीं, शरीरके उत्कर्षसाधनके लिए भी इस देश में मांसभोजनका प्रयोजन नहीं है। मछलीके सम्बन्धमें उससे अधिक मतभेद पाया जाता है। मछली अपेक्षाकृत निर्दोष और सुलभ है, और उसे छोड़ देनसे उसके बदले वैसा ही उपकारक खाद्य पाना भी कठिन है। इसके सिवा मछलीका क्रीड़ास्थल जलके भीतर है, और जलसे बाहर निकालते ही मछली मर जाती है । सुतरां मछली मारनेमें, अधिक निष्ठुर काम नहीं करना होगा। इसी कारण मत्स्यत्यागका नियम उतना दृढ़ नहीं बनाया गया। परन्तु केवल खाद्यअखाद्यका विचार करनेसे ही काम नहीं चलेगा, आहारका परिमाण भी अतिरिक्त होना उचित नहीं है । मनुभगवान् कहते हैं:
"अनारोग्यमनायुष्यमस्वयं चातिभोजनम् । ___ अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत् ॥"
(मनु । २ । ५७१) अर्थात् अतिभोजन जो है वह अरोग्य, दीर्घायु, स्वर्गलाभ और पुण्यकायमें बाधा डालने वाला है, और लोग निन्दा भी करते हैं, इस लिए अतिभोजन नहीं करना चाहिए । यह मनुवाक्य केवल धर्मशास्त्रकी उक्ति नहीं है, चिकित्साशास्त्र भी इसका अनुमोदन करता है। अतएव आहार केवल
(१) Haig's Diet and food. P. 119 देखो।