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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
अनेक स्थलोंमें विज्ञानचर्चा के द्वारा क्रमशः उनके प्रतिकारोंका आविष्कार हो रहा है। मनुष्यकी कुप्रवृत्तियोंसे उत्पन्न जो अशुभ हैं, दर्शन और नीतिशास्त्रकी आलोचनाके द्वारा सुशिक्षा और सुशासनप्रणालीकी सम्यक् स्थापना करके उनके प्रतिविधानकी चेष्टा हो रही है। और, जिन सब स्थलोंमें अन्य प्रतिकार असाध्य है, वहाँ मंगलमय ईश्वरके ऊपर दृढ़ निर्भर करके यह विचार कि इस जीवनका अशुभ क्षणिक और अनन्त जीवनके मंगलका कारण है, अविचलित रखना ही एकमात्र प्रतिकार है।