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चौथा अध्याय ]
बहिर्जगत् ।
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निकालकर ईश्वरका मंगलमय होना साबित करना एक अत्यन्त दुरूह मामला है, असाध्य भी कहें तो कह सकते हैं। उस असाध्यसाधनकी चेष्टाका प्रयोजन भी नहीं है। हम लोग अपनी अपनी आत्मासे यूछकर इस बातका अखंडनीय प्रमाण पा सकते हैं कि ईश्वर मंगलमय है । बहिर्जगत्में इतना अशुभ भरा पड़ा है, अन्तर्जगत्में भी अनेक प्रवृत्तियाँ हमें अशुभ कार्य करनकी ओर झुका रही हैं, किन्तु यह सब होने पर भी हम शुभको प्यार करते हैं-पसंद करते हैं, अपने मंगल-साधनके लिए निरन्तर व्याकुल रहते हैं, अमंगल-घटना होने पर अन्यके द्वारा अपने मंगलसाधनकी आकांक्षा रखते हैं, और सुयोग पाने पर पराया मंगल-भला-करनेका यत्न भी करते हैं । यहाँ तक कि चोर भी यह विश्वास रखता है कि उसके चौर्य-लब्ध द्रव्यको अन्य कोई ले न जायगा, घोर नृशंस कुकर्मी भी पकड़े जाने पर अन्यकी दयाके ऊपर निर्भर करके क्षमा पानेकी आशा करता है, और पापाचारी भी पाप आचरणके कारण मर्मभेदी क्लेश सहता है। शुभके लिए हमारा यह अन्तर्निहित अप्रतित अनुराग कहाँसे पैदा होता है? जगत्का आदि कारण मंगलमय न होता तो मंगलकी ओर हमारी आत्माकी यह अप्रतिहत गति कभी न होती। अतएव इसमें कुछ सन्देह नहीं रह सकता कि ईश्वर मंगलमय है। और, ऐसा होने पर यह अनुमान कि जीवके इस जीवनका अशुभ अनन्त जीवनके शुभके लिए है, अमूलक न होकर संपूर्ण युक्तिसिद्ध ही प्रतिपन्न होता है। __ ऊपर जो कहा गया उसीसे, अशुभका परिणाम क्या है, इस दूसरे प्रश्नका उत्तर भी एक प्रकारसे दिया जा चुका । जगत्में जीवका जो कुछ अशुभ भोग है वह क्षणस्थायी है, और परिणाममें सभी जीवोंको परम मंगल और मुक्ति मिलेगी, यही युक्तियुक्त सिद्धान्त जान पड़ता है। इस सिद्धान्तकी मूल भित्ति ईश्वरका मंगलमय होना है। उसके बाद जीवजगत्में जितना क्रमविकास देखा जाता है वह उन्नतिकी ओर है। और, अन्तर्दृष्टिके द्वारा यह भी देखा जाता है कि मनुष्यका दुःखभोग आध्यात्मिक उन्नतिका उपाय है। इन सब विषयोंकी पर्यालोचना करनेसे अनुमान होता है कि जल्दी हो या देरमें हो, जीवका परिणाम शुभ ही है, अशुभ नहीं। __ जगत्में जो अशुभ है उसका प्रतिकार है कि नहीं, इस प्रश्नके उत्तरमें, संक्षेपमें, इतना ही कहा जा सकता है कि जो अशुभ जड़ जगत्से उत्पन्न हैं,