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ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग
उस अशुभका कारण ईश्वरातीत है । आर, सर्वशक्तिमान् सकलमंगलनिलय ईश्वरकी सृष्टिमें अशुभ क्यों आया ? इस प्रश्न के उत्तरमें, हमारे अपूर्ण ज्ञानसे जहाँतक समझा जाता है उससे, इतना ही कहा जा सकता है कि कूटस्थ निर्गुण ब्रह्म चाहे जैसा हो, प्रकटित नियमके अनुसार, कोई भी ज्ञानगम्य . विषय अपने विपरीत भावसे अनवच्छिन्न अर्थात् असंयुक्त नहीं हो सकता; इसी कारण जगत्में शुभ होगा तो उसके साथ साथ अशुभ भी अवश्य ही होगा। अशुभ न होता तो शुभका अस्तित्व भी ज्ञानगोचर न होता। हमारा यह कथन ईश्वरकी असीम दयाके ऊपर रहनेवाले विश्वासका बाधक नहीं हो सकता। क्योंकि जीवके इस जीवनका अशुभ चाहे जितना गुरुतर क्यों न हो, वह उसके अनन्त जीवनके परिणाम शुभके साथ तुलनामें क्षणिकमात्र है । इस जगह पर यह भी याद रखना चाहिए कि अशुभ और दुःखका भोग ही जीवकी आध्यात्मिक उन्नति और मुक्तिलाभका श्रेष्ट उपाय है, और वह अशुभ तथा दुःखभोग जितना तीव्र होगा उतनी ही जल्दी जीवको उन्नति प्राप्त होगी। इस भावसे देखने पर ऐसा नहीं है कि कुछ जीवोंका अमङ्गल केवल अन्य जीवोंके मङ्गलके लिए है-और अमंगल केवल समष्टिरूपमें मंगल है, बल्कि उस अमंगलको अशुभ भोगनेवाले जीवोंके अपने अपने मंगलका कारण मानना होगा । पशु-पक्षी आदि जिनको हम अज्ञान जीव कहते हैं, उनके हृदयमें क्या होता है, सो हम कह नहीं सकते, किन्तु सज्ञान जीव अर्थात् मनुष्यमात्र अपनी आत्मासे पूछकर इस बातका प्रमाण अवश्य पावेंगे कि दुःखभोग आध्यात्मिक उन्नतिकी सीढ़ी है। यहाँ पर एक और कठिन प्रश्न उपस्थित होता है । जगतमें अशुभ है, और उसका कारण ईश्वरसे अतीत नहीं है, इन दोनों बातोंको स्वीकार करनेसे ईश्वरके मंगलमय होनेका प्रमाण क्या रह गया ? और यह आखिरी बात कि ईश्वर मंगलमय है, अगर प्रमाणित न हो, तो जीवके इस जीवनका अशुभ अनन्त जीवनके मंगलका मूल होगा-ऐसा अनुमान करनेका कारण ही क्या रह गया ?
इस प्रश्नके उत्तरमें पहले यह कहा जा सकता है कि जगतका शुभाशुभ जहाँतक देखा जाता है, उसमें तुलना करनेसे, शुभभाग ही अधिक है, अशुभेका भाग थोड़ा है; अतएव ईश्वरके मंगलमय होने पर संदेह करनेका कोई प्रबल कारण नहीं है। तो भी यह अवश्य है कि जगत्के शुभाशुभकी बाकी