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चौथा अध्याय ]
बहिर्जगत् । कर्मोंका फल कह कर वर्णन किया है।-" पुण्यो वै पुण्येन कर्मणा भवति पापः पापेनेति ।" (बृहदारण्यक उपनिषद् । ३।२।१३।) वेदान्तदर्शन, शांकरभाष्य (३।२ । ४१ ) में भी कहा गया है कि ईश्वर जो हैं • वे प्राणियोंके प्रयत्नके अनुसार फलका विधान करते हैं। किन्तु यह बात कहने पर भी यह सिद्ध नहीं होता कि अशुभके साथ ईश्वरका संसर्ग नहीं है। क्योंकि प्रश्न होगा-जीवके शुभाशुभका मूल जो कर्म-अकर्म है उसका मूल क्या है ? ईश्वरने ही जीवकी सृष्टि की है, जीवको कर्म-अकर्म करनेकी शक्ति और प्रकृति उन्हींसे प्राप्त है, अतएव जीवके शुभाशुभका मूल उसी ईश्वरसे उत्पन्न है । और, भूकंप, जलप्लावन, तूफान-आँधी आदि जड़ जगत्की दुर्घटनाओंसे उत्पन्न जीवका अशुभ किस तरह जीवका कर्मफल कहा जा सकता है, सो सहज ही समझमें नहीं आता। कोई कोई कहते हैं कि हम जिसे अशुभ कहते हैं वह यथार्थमें अशुभ नहीं है-वह जीवके लिए कुछ कुछ अशुभकर हो सकता है, किन्तु सारे जगत्के लिए शुभकर ही है। जैसे, एक जातिका जीव दूसरी जातिके जीवको आहारके लिए जो नष्ट करता है सो जगत्के लिए हितकर है। कारण, यह न होता तो जल जीती और मरी हुई मछलियोंसे पूर्ण हो जाता, हवा जीवित पक्षियों और पतंगोंसे पूर्ण रहती, और पृथ्वी भी बहुतसे जीते और मरे जीव जन्तुओंसे पूर्ण होकर अन्य जीवोंके न रहने लायक बन जाती। वे लोग पापकी उत्पत्तिके साथ ईश्वरका रहना सिद्ध करनेके लिए कहते हैं कि पाप और कुछ नहीं, स्वाधीन जीवकी स्वाधीनताके अपव्यवहारका फल है। वे लोग इतनी दूर तक जानेके लिए तैयार हैं कि “ स्वाधीन जीव दुष्कर्म करेगा-यह पहले जानकर ईश्वरने जीवकी सृष्टि की है। ऐसा माननेसे ईश्वरको दोष न स्पर्श करे, इस आशंकाको मिटानेके लिए, वे इस विषयमें ईश्वरकी सर्वज्ञता खण्डित करनेमें कोई बाधा नहीं देखते । (१)
युक्तिमूलक आलोचना की जाय, तो भी जगत्में अशुभका अस्तित्व अस्वीकार नहीं किया जा सकता । और यह भी स्वीकार नहीं किया जा सकता कि
(१) Martineans Study of Religion, Bk. II. Ch. III. और Bk. III. Ch. II. P. 279 देखो।