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ज्ञान और कर्म। [प्रथम भाग तरफ जीवके विनाश और सतानेके लिए तरह तरहकी चेष्टाएँ होती हैं। अज्ञ जीवों में परस्पर खाद्य-खादक सम्बन्ध रहनेके कारण एक जातिका जीव दूसरी जातिके जीवको विनष्ट करता है । जड़ जगत्में भी, जैसे एक ओर सूर्यकी किरणोंसे उज्ज्वल सुनील निर्मल आकाशमण्डल और शीतल-मन्दसुगन्ध वायुसे आन्दोलित स्वच्छ सरोवर या नदीका प्रवाह जीवको सुख
और शान्ति देते हैं, वैसे ही दूसरी ओर घने मेघोंसे ढका हुआ, भयानक वज्रपातसे प्रनिध्वनित, अन्ध, अन्धकारमय आकाश और प्रचण्ड तूफानसे उमड़ रहा, ऊँची तरंग मालाओंसे आलोड़ित सागर जीवके अशुभ, और अशान्तिको उत्पन्न करते हैं। इसके सिवा ज्वालामुखी पहाड़ोंकी भयानक अग्निलीलाके उत्पात, धरातलका विध्वंस करनेवाले भूकम्प आदि खण्डप्रलय भी समय समयपर जीवोंका सब तरहका अमंगल और अनिष्ट करते रहते हैं। __यह सब देख-सुनकर मनमें प्रश्न उठता है कि जो जगत् मंगलमय ईश्वरकी सृष्टि है उसमें इतना अशुभ क्यों है, इस अशुभका परिणाम क्या है और इस जगत्में इस अशुभका प्रतिकार है कि नहीं ? अनेक लोग समझसकते हैं कि पहला और दूसरा प्रश्न बेकार दार्शनिक लोगोंकी आलोचनाके योग्य है। किन्तु तीसरा प्रश्न तो निश्चित ही कार्यकुशल वैज्ञानिकोंकी भी विवेचनाका विषय है । और, जहाँ विज्ञानके द्वारा प्रतिविधान साध्य नहीं है, वहाँ पहलेके दोनों प्रश्नोंकी आलोचना बिल्कुल व्यर्थ या 'किसी कामकी नहीं' नहीं है। कारण, वैसे स्थलोंमें अगर कोई शुभ-शान्तिका मार्ग है तो वह केवल उक्त दोनों प्रश्नोंकी आलोचनासे ही पाया जा सकता है। इसी लिए क्रमशः तीनों प्रश्नोंके सम्बन्धमें कुछ कुछ कहा जायगा।
पवित्र और मंगलमय ईश्वरकी सृष्टिमें पाप और अमंगलने किस तरह प्रवेश किया, इस प्रश्नका उत्तर अनेक स्थानोंमें अनेक प्रकारसे. दिया गया है। ईसाइयोंके धर्मशास्त्रमें ऐसा आभास पाया जाता है कि स्वर्गमें ईश्वरके अनुचरोंमेंस एक ईश्वर विद्रोही हो उठा और उसका नाम शैतान पड़ा । उसीकी कुमन्त्रणासे मनुष्य जातिके आदि पुरुष आदम और हव्वा ईश्वरकी आज्ञाका उलंघन करके पापभागी हुए, और इसी सूत्रसे पृथ्वी पर पाप और अमंगलने प्रवेश किया । यह कथन एक संप्रदायका मत है, और युक्तिके साथ इसका सामंजस्य करना भी कठिन है। हिन्दू शास्त्रमें जीवके शुभाशुभको जीवके