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________________ चौथा अध्याय ] बहिर्जगत्। जो जगत्का मूलकारण है, इन सज्ञान जैव क्रियाओंको उसी चैतन्यकी क्रिया मानना पड़ता है। उसी चैतन्यशक्तिके द्वारा इस पृथ्वीकी-केवल इस पृथ्वीकी ही नहीं, जगत्में जहाँ जहाँ सज्ञान जीव हैं, उन सब स्थानोंकी-सारी नैतिक और आध्यात्मिक क्रियाओंका संपादन होता है। उन सब क्रियाओंकी विस्तृत आलोचना इस जगह पर अनावश्यक है। वह कर्ममार्गका विषय है। ___ यहाँ पर केवल इतना ही कहूँगा कि जड़की क्रियाओंकी तरह अज्ञान क्रियाएँ जैसे गतिमूलक हैं, वैसे ही सज्ञान क्रियाएँ या चैतन्यकी क्रियाएँ स्थिति या शान्तिको खोजनेवाली होती हैं। जीव सज्ञान अवस्थामें जो कोई काम करता है वह सुखप्राति या दुःखानिवृत्ति अर्थात् शान्तिलाभके लिए करता है। और वह शान्ति पानेके लिए यद्यपि कर्म अर्थात् गति ही एकमात्र उपाय है, किन्तु वह शान्ति स्वयं गतिका विराम अर्थात् स्थिति है। " ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता वुद्धिर्जनार्दन । तकि कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥" (गीता । अ०३, श्लो० १) अर्थात्, हे जनार्दन, हे केशव, अगर आपकी रायमें कर्मसे ज्ञान श्रेष्ट है, तो फिर आप मुझे घोर कर्ममें क्यों नियुक्त करते हैं ? । उसी तरह हम सब भी यही बात कहना चाहते हैं, और कर्मसे विरत होकर शान्तिदायक ज्ञानकी आलोचनामें लगे रहनेकी इच्छा रखते हैं। किन्तु उक्त प्रश्नके उत्तरमें श्रीकृष्णने क्या कहा है सो भी स्मरण रखना चाहिए। उन्होंने कहा है " न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्य पुरुषोऽश्रुते। न च सन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥ न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत् । कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः॥" (गीता। अ०३, श्लो०४-५) अर्थात्, संसारमें कोई आदमी कर्म न करके नैष्कर्म्य अवस्थाको नहीं प्राप्त कर सकता। केवल कर्मत्याग ( संन्यास ) से ही किसीको सिद्धि नहीं मिल जाती। कोई भी, किसी भी अवस्थामें, क्षणभर भी, कर्म किये विना ज्ञान०-६
SR No.010191
Book TitleGyan aur Karm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupnarayan Pandey
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1921
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size65 MB
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