________________
८२ ज्ञान और कर्म।
[प्रथम भाग नहीं रह सकता। प्रकृतिसे उत्पन्न सत्व-रजः-तमः नामके गुण सबको विवश करके कर्म कराते हैं, अर्थात् कर्म करनेके लिए विवश करते हैं।
कर्म किये विना रहनेका उपाय नहीं है। कर्म न करके कर्मसे विराम या शान्ति नहीं मिलती । गति ही गतिविराम अर्थात् स्थितिके पानेका मार्ग है, मगर हाँ, यह ठीक नहीं कहा जा सकता कि जीवकी वह स्थिति स्थायी होगी या क्षणिक होगी, और हिंडोलेकी तरह स्थितिके स्थानमें क्षणमात्र रह कर पूर्वगतिजनित सञ्चित वेगके फलसे विपरीत ओर फिर गति आरंभ होगी या नहीं। जीवकी पूर्वगति ब्रह्मज्ञानलाभके मार्गकी ओर जानेवाली होने पर, शास्त्रमें कहा गया है, वह जीव ब्रह्म लोक प्राप्त करता है। यथा" न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते " (१) अर्थात् वह फिर नहीं लौटता, फिर नहीं लौटता। ___ शास्त्र छोड़ कर युक्तिमूलक आलोचना करने पर भी शायद ऐसे ही सिद्धान्तपर पहुँचना होता है।
जगत् जड़ और चैतन्यकी क्रियाओंसे व्याप्त है । जड़ और जड़की क्रियाएँ स्थूलजड़की और परमाणु तथा ईथररूपी सूक्ष्मजड़की गतिसे उत्पन्न हैं, और वह गति सूक्ष्मजड़के भीतर छिपी हुई शक्तिसे उत्पन्न है। चैतन्यकी क्रिया उसकी अपनी शक्तिसे उत्पन्न है, और उसके द्वारा भी जड़की गति उत्पन्न होती है। ये दोनों शक्तियाँ मूलमें एक हैं या जुदी जुदी हैं, इस बारेमें मतभेद है। किन्तु, वे मूलमें एक हैं, यही सिद्धान्त संगत है, यह बात पहले कही जा चुकी है। फिर एक वैज्ञानिक पण्डितने इस मतको पुष्ट करनेके लिए अनेक युक्तियाँ और प्रमाण दिखलाये हैं कि परमाणु प्रच्छन्न शक्तिकी समष्टि है, अविनश्वर नहीं है, और काल पाकर अपने उपादानकारणस्वरूप उस प्रच्छन्न शक्तिको प्रकीर्ण करके ईथरमें विलीन हो जाते हैं ( २ ) । उक्त वैज्ञानिकने यह भी आभास दिया है कि अगर यही बात ठीक है, तो असंख्य कल्पोंके बाद उस शक्तिसमूहके द्वारा परमाणुका पुनर्जन्म भी हो सकता (१) छान्दोग्य उपनिषद् । ८।१५।१ ।
(२) Gustare Le Bon's Evolution of Matter, pp. 307-19 देखो।