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चीज है । अन्तमें जस्टिस कनिंगहमके अवसर ग्रहण करने पर गुरुदासबाबू कलकत्ता हाईकोर्टके जज हो गये। इस पद पर रहकर उन्होंने बड़ी सचाई
और न्यायप्रियतासे काम किया। उनके नीचेके अधिकारी उन्हें एक आदर्श न्यायाधीश समझते थे। अपने कर्तव्यपालनके लिए अपने, घनिष्ठसे घनिष्ठ मित्रों और स्नेहियोंके विरुद्ध बोलने और लिखने में वे जरा भी नहीं हिचकते थे।
पेन्शन ले लेने पर उन्हें 'नाइट हुड' का पद मिला । जिस समय गुरु - दास बाबूने पेन्शन ली, उस समय उनका स्वास्थ्य बहुत अच्छा था और तब यह नियम भी नहीं था कि ६० वर्षकी अवस्थामें हाईकोर्टके जजोंको पेन्शन ले ही लेनी चाहिए। फिर भी उन्होंने जजी छोड़ दी । एक तो उनका खयाल था कि मुझे अपने बादके योग्य वकीलोंके जजी-लाभके मार्गमें कण्टक बनकर न रहना चाहिए, दूसरे अवकाश मिलने पर वे अपने देशके युवकोंमें शिक्षाका विस्तार और उसकी उन्नतिके लिए अधिक परिश्रम करना चाहते थे और तीसरे उन्हें यह आशङ्का भी थी कि शायद मैं बुढ़ापेके कारण इस न्यायकार्यको पूर्वके समान कर्तव्यपरायणताके साथ नहीं कर सकूँगा ।
सर गुरुदासका जीवन केवल ज्ञान और सदाचरणके कारण ही महान् नहीं था; सार्वजनिक सेवाओं के उच्च आदर्शके कारण भी वे महान् थे। जजीसे अवकाश ग्रहण करनेके बाद कलकत्तेमें ऐसी कोई भी महत्त्वपूर्ण सभा नहीं हुई, जिसमें उनकी उपस्थितिको विशेष सम्मान और महत्त्व नहीं दिया गया हो। सना-समतियों के निमंत्रणमें वे छोटे बड़ेका विचार नहीं करते थे। छोटे छोटे लड़कोंकी सभाओंमें भी वे प्रसन्नतासे जाते थे।
गुरुदास बाबू जीवनभर शिक्षासम्बन्धी कार्यों में ही व्यस्त रहे । उनके अध्ययनका यह प्रधान विषय था। इस देशमें उनके समान शिक्षाविज्ञानका पारंगत पण्डित और कोई न था। उन्होंने अँगरेजीमें 'थाट्स ऑन एज्युकेशन' (शिक्षा पर विचार ) नामक प्रसिद्ध पुस्तक लिखी है। उसकी प्रायः सभी मुख्य मुख्य बातें इस ग्रन्थके भीतर आगई हैं । सन् १८७९ में वे कलकत्ता यूनीवर्सिटीके फेलो नियत हुए और दो बार वाइस चान्सलर । कलकत्ता यूनीवर्सिटीका बहुत कुछ सुधार उन्हींकी दृढता और कार्यपरताके कारण हुआ है।
लार्ड कर्जनके समयमें जो शिक्षा-कमीशन बैठा था, गुरुदास बाबू उसके एक प्रधान सभ्य थे । इस कमीशनमें उन्होंने सिरतोड़ परिश्रम किया था और