________________
माताकी समस्त आज्ञाओंका जरा भी इतस्ततः किये बिना, निरन्तर पालन किया है । "
गुरुदास बाबूकी शिक्षाका प्रारंभ एक प्राचीन ढंगकी संस्कृत पाठशाला में हुआ था । जिस समसु स्व० गोखले के अनिवार्य शिक्षासम्बन्धी बिलकी चर्चा हो रही थी उस समय उभ्होंने अपने एक व्याख्यानमें कहा था कि " मैं एक ब्राह्मणकुलमें उत्पन्न हुआ हूँ । मुझे अच्छी तरह स्मरण है कि अबसे लगभग ५० वर्ष पहले जब मैं एक ग्रामीण पाठशाला में पढ़ता था तब एक तेलीके लड़के के पास बैठा करता था । वह मुझसे बहुत अधिक योग्य था, इस कारण मैं उससे अपने पाठ में सहायता लिया करता था । पर मुझे इस बातका जरा भी पशोपेश न होता था कि मैं ब्राह्मण हो कर एक तेलीसे क्यों पाठ ले रहा हूँ । यदि यह बात अबसे ५० वर्ष पहले सहन की जा सकती थी कि ब्राह्मण और शूद एक साथ पढ़ें, तो फिर इस समय इसमें क्या आपत्ति हो सकती है ? यद्यपि मि० गोखलेका यह बिल इस समय हमें बिलकुल नया और मौलिक प्रतीत होता है; परन्तु वास्तव में यह एक पुराने तरीकेकी पुनरावृत्ति मात्र है जो कि ५० वर्ष पहले के स्वाश्रयी भारत में विद्यमान था ।
ܕ
स्कूल और कालेजकी शिक्षा समाप्त करके गुरुदास बाबूने सन् १८६५ में गणित में एम० ए० पास किया । विश्वविद्यालयकी सभी परीक्षाओंमें उनका नम्बर सर्वोच्च रहा । एम० ए० पास करनेके बाद वे कलकत्ते के प्रेसीडेंसी कालेज में गणित के व्याख्याता नियुक्त हुए । अगले वर्ष उन्होंने कानूनकी बी० एल० परीक्षा दी और उसमें भी वे सर्वोत्कृष्ट रहे । इसके थोड़े ही दिन बाद वे • बहरमपुर कालेज में कानूनके व्याख्याता बनाये गये और उसी जिलेमें वकालत भी करते रहे। सन् १८७२ में वे कलकत्ता हाईकोर्ट में लौट आये और १८७६
उन्होंने कानूनका ' आनर्स एग्जामिनेशन' पास किया। इसके बाद उन्हें डाक्टर आफ ला' की पदवी मिली । सन् १८७८ में वे ' टैगोर - ला- लेक्चरर ' नियत हुए। इसके लिए उन्होंने 'स्त्री- धन' और 'विवाहविषयक हिन्दू ला' ये दो विषय चुने | इस समय भी उनके इन विषयोंके लेक्चर बहुत ही प्रामाणिक गिने जाते हैं । कानूनी बातों में ऐसी दक्षताके कारण उनकी ख्याति बहुत हुई; परन्तु उन्होंने कानूनी पेशेके आगे कभी अपने घुटने नहीं टेके । इस बातका उन्हें सदैव खयाल रहा कि संसार में रुपया पैसा और मान प्रतिष्ठासे भी बढ़कर कोई
-6
+