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प्राचीन प्राचार्य परम्परा . . [ ४६ नाभिराय का तनय एक वह, जिसकी प्रतिकृति पुजती जन से। मरुदेवी का लाल नेक वह, जिसको जनता सुनती मन से । यह असीम अपनी सीमा में, जब देता सबको वांछित वर । अति उदार बन सरित मेघ सा, पुलकित होता अवनो अम्बर ।।
पिता भरत पौ बाहुबली का, ब्राह्मी तथा सुन्दरी का। धर्म-पिता को देख देखकर, बढ़ता हर्ष न किसका है ??
जो उदार चेता वह कहता, बढ़ता हर्ष सभी का है। हे आदिनाथ ! ब्रह्मा बनकर, तुमने युग का निर्माण किया। हे ऋषभदेव ! विष्णू बनकर, तुमने जग जन का त्राण किया । हे आदिदेव ! हो महादेव, तुमने जग का कल्याण किया। हे विश्ववन्द्य ! हो कला-स्रोत, तुमसे सच जग म्रियमाण जिया ।।
रचना की आदर्श अनोखी, रक्षा का भाव न किसका है ?
जो उदारचेता वह कहता, यह तो भाव सभी का है । वीतरागता की विराटता तू लेख रहा निज अन्तर में । सर्वदर्शिता की समानता तू देख रहा निज मन्तर में ॥ हितोपदेशिता की महानता पहिचान रहा तू मति-मन में । विश्वबन्धुता की स्वतन्त्रता अनुमान रहा तू मति-मन में ।
तेरे पावन चरणों पर कर का स्पर्श न किसका है ?
जो उदार चेता वह कहता, कर स्पर्श सभी का है। सागर सी लेकर मर्यादा, गम्भीर बना तू अन्तर में। दीप-शिखा सी लेकर ज्वाला, उन्नत सु धीर तू मन्तर में । प्रकृति जगत का रम्यदेव बन, बैठा निश्चल दिक् अम्बर में । जीवन-दर्शन ले सार सना, अनुभव करता तन प्रस्तर में ।
तू रवि सा कवि का अमर काव्य, सुनने का चाव न किसका है ? . जो उदार चेता वह कहता, सुनने का भाव सभी का है।