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विगम्बर मुनिराज स्तवनांजलि !
भव्य दिगम्बर मुनिपुंगव तुम, वर्दू नित ही तुमको मैं; मन, वच, काया विशुद्ध करके करूं नमोऽस्तु सदैव मैं ॥ जातरूप तुम नग्न, दिगम्बर, योगी, ममताशून्य सदा; हिंसादूर, अकच्छ, अकिंचन, अनगारी, अह्नीक सदा॥ तुम निर्ग्रन्थ, अपरिग्रही नित, अतिथि, अचेलक, आर्य, गणी; तुम शृंगार रहित, जिनलिंगी, अनागार, निश्चेल, मुनि ।। पाणिपात्र, भिक्षुक, माहण, यति, वातवसन, निष्परिग्रही; विवसन, संयत, थविर, श्रमण तुम, एकाको संन्यस्थ सही ।। महाव्रती, नितवंद्य, निरम्बर, ऋपि, गुरु, अलोभ, सुसंयमी; साधु, तपस्वी, परोषहसही, गृहसंत्यक्त, मलिनदेहो ।। निष्कपायमन, मलाच्छन्नतन, सत्यमहाव्रतधारी तुम; महा अहिंसा-अस्तेयांकित, महा ब्रह्मचारी हो तुम ।। त्यक्तपरिग्रह, धर्म-शुक्ल-सद्धयानपरायण, तप-तत्पर; पंचसमितिरत, पंचेन्द्रियजित, 'क्षपणक तुम कौपीनोत्तर ।। सामायिकरत, ज्ञान-ध्यान-तप-मग्न सदा, जिनस्तुतिगायक; स्नानविजित, अदन्तधावक, पृथिवीशायी, स्थितिभोजक ।। एक भक्त, सर्वेन्द्रियजेता, कायोत्सर्गी, जिनवन्दक; हेयविवर्जित, उपादेयरत, विवेक-आभूषण धारक ।। सर्वसंगत्यागी, आशागत, विषयवशातीत, समबुद्धि; शान्ति-क्षान्तिके महान सागर; आशारहित महाउदधि ॥ स्वात्मसुखान्वित, परोपकारक, कर्मशत्रु, निस्संग महा; महाधैर्यधारी, निर्भय नित, स्वतंत्र, समतामूर्ति अहा ।।