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जैनाचार्यों का
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समाज व राष्ट्र को योगदान
[डॉ. सुशीलचन्द्र जैन, मैनपुरी]
दशों दिशाओं में प्राची दिशा का एक विशेष ही महत्व है जिसका नाम लेते ही हृदयं कमल प्रस्फुटित होने लगता है । उसी प्राची दिशा का मेरा देश भारत । भारत का नाम लेते ही याद आती है एक महत्वपूर्ण संस्कृति की जिसमें श्रमण संस्कृति का विशेष योगदान रहा है। संस्कृति के साथ जुड़े श्रमण शब्द का अर्थ ही है, "साधु" नग्न दिगम्बर साधु जिसके लिये प्राचार्य समन्तभद्र
ने कहा
विषयाशावशातीतो निरारंभोऽपरिग्रहा। ज्ञानध्यान तपो शक्तिस तपस्वी स प्रशस्यते ॥"
अनादि काल से चली आ रही श्रमण संस्कृति का इस काल में प्रवर्धन हुआ, आदिनाथ से वीर पर्यन्त २४ तीर्थंकरों व असंख्य श्रमणों द्वारा और तत्पश्चात् पंचमकाल में इस संस्कृति को प्रवाहित करने का पूर्ण उत्तरदायित्व दिगम्बर मुनिराजों पर आगया। भगवान महावीर के निर्वाण के पश्चात् आचार्यों ने ज्ञान व चारित्र के पहियों से इस रथ को आगे बढ़ाया। वर्तमान समय में इस रथ के सारथी वने आ० शांतिसागरजी और उन्हीं की परम्परा में पट्टाधीश प्राचार्य धर्मसागरजी के अभिवंदन ग्रन्थ समारोह के विमोचन अवसर पर प्राचार्य वंदना दिवस के रूप में इन समस्त प्राचार्यों के प्रति हम अपनी भक्ति प्रदर्शित कर रहे हैं।
जीव उद्धार :
जैनधर्म का प्रथम लक्ष्य रहा है जीव उद्धार ।
"कला बहत्तर पुरुष की तामें दो सरदार। एक जीव की जीविका एक जीव उद्धार ॥" .