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प्राचीन प्राचार्य परम्परा
[३३ भारतीय ग्रन्थ राशि के जैनाचार्य पाठक ही नहीं स्वयं निर्माता थे। उनकी लेखनी अविरल गति से चली । संस्कृत, प्राकृत, शेरसैनी, अभ्रंश आदि से युक्त विशाल साहित्य का निर्माण कर उन्होंने सरस्वती के भंडार को भरा । उनका साहित्य स्तवन प्रधान एवं गीत प्रधान ही नहीं था। प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग, द्रव्यानुयोग से युक्त काव्य, महाकाव्य, विशालकाय पुराणों, सिद्धान्त ग्रन्थों की संरचना की।
दर्शन क्षेत्र में जैनाचार्यों ने गम्भीर दार्शनिक दृष्टियाँ प्रदान की एवं योग के सम्बन्ध में नवीन व्याख्याएं भी प्रस्तुत की, न्याय शास्त्र के स्वयं प्रस्थापक बन कर्म सिद्धान्त शास्त्रों की महान टीकाएं की ऐसे जैन शासन का महान साहित्य जैनाचार्यों की मौखिक सूझ-बूझ एवं उनके अनवरत परिश्रम का परिणाम है।
परमागम प्रवीण बुद्धि उजागर भवाब्धि पतवार कर्मनिष्ठ, करुणा, कुवेर एवं जन-जन हितैषी जैनाचार्यों की असाधारण योग्यता से एवं उनकी दूरगामी पद यात्राओं से समस्त जन समुदाय को प्रभावित किया, शासन शक्तियों ने उनका भारी सम्मान किया। विविध मानद उपाधियों से जैनाचार्य विभूषित किये गए, पर किसी प्रकार की पदप्रतिष्ठा उन्हें दिग्भ्रान्त न कर सकी। पूर्व विवेक के साथ उन्होंने महावीर स्वामी की परम्परा को संरक्षण एवं विस्तार दिया, आज भी दिगम्बर जैनाचार्यों के समुज्ज्वल एवं समुन्नत इतिहास के सामने प्रबुद्ध व्यक्ति नतमस्तक हो जाते हैं।
सागर गहरा होता है, ऊँचा नहीं, शैल उन्नत होता है, गहरा नहीं, अतः इन्हें मापा जा सकता है, पर उभय विशेषताओं से समन्वित होने के कारण महापुरुषों का जीवन अमाप्य होता है।
वर्तमान में भारत भूमि पर महावीर का सम्प्रदाय ही गौरव के साथ मस्तक ऊँचा किए है । यह श्रेय विशिष्ट क्षमताओं और प्रतिभाओं को है । भगवान महावीर की उत्तरवर्ती आचार्य परम्परा में प्रखर प्रतिभा सम्पन्न तेजस्वी, वर्चस्वी, मनस्वी, यशस्वी अनेक प्राचार्य हुए।
जैन शासन की श्री वृद्धि में उनका अनुदान अनुपम है। वे त्याग-तपस्या के उत्कृष्ट उदाहरण हैं, यम नियम संयम के लिये भव्यजनों के उद्बोधनार्थ अर्थागम प्रदान किया। प्राणोत्सर्ग