________________
भारतीय संस्कृति में
-दिगम्बर साधुनों का स्थान
[ ब्र० धर्मचन्द शास्त्री, संघस्थ ]
भारत में मुनि परम्परा और ऋषि परम्परा ये दो परम्पराएँ प्राचीन काल से रही हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से प्रथम परम्परा का सम्बन्ध श्रात्मधर्मी दिगम्बर मुनिवरों से रहा है। श्रमरण मुनि मोक्ष मार्ग के उपदेष्टा रहे हैं, द्वितीय का सम्बन्ध लोक धर्म से रहा है ।
भारत वर्ष का क्रमबद्ध इतिहास भगवान आदिनाथ ( वृषभनाथ ) से प्रारम्भ हुवा तथा जैन धर्म के अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर धर्म तीर्थ के अन्तिम प्रवर्तक थे ।
भारतीय संस्कृति में आर्हत संस्कृति का प्रमुख स्थान है । इसके दर्शन, सिद्धान्त, धर्म और उनके प्रवर्तक तीर्थकरों तथा उनकी परम्परा का महत्वपूर्ण अवदान है । आदि तीर्थकर से लेकर अन्तिम चौबीसवें तीर्थंकर महावीर और उनके उत्तर-वर्ती आचार्यो, मुनियों ने अध्यात्म विद्या का सदा उपदेश दिया और भारत की चेतना को जागृत एवं ऊर्ध्वमुखी रखा है । श्रात्मा से परमात्मा की ओर ले जाने तथा शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिए उन्होंने अहिंसा, अनिन्द्रियनिग्रह, त्याग और समाधि ( श्रात्मलीनता ) का स्वयं श्राचरण किया और पश्चात् उनका दूसरों को उपदेश दिया । सम्भवतः इसी से वे अध्यात्म - शिक्षा दाता और श्रमण संस्कृति के प्रतिष्ठाता कहे गये हैं। आज भी उनका मार्ग दर्शन निष्कलुष एवं उपादेय माना जाता है ।
जैन धर्म अपनी मौलिकता और वैज्ञानिकता के कारण अपने अस्तित्व को एक शाश्वत धर्म के रूप में अभिव्यक्ति दे रहा है। भगवान महावीर इस युग के अन्तिम तीर्थकर थे । उनके बाद प्राचार्यों की एक बहुत लम्बी श्रृंखला कड़ी से कड़ी जोड़ती रही है । सब प्राचार्य एक समान वर्चस्व वाले नहीं हो सकते । नदी की धारा में जैसे क्षीणता और व्यापकता आती है वैसे ही आचार्य - परम्परा में उतार-चढ़ाव श्राता रहा है । फिर भी उस श्रृंखला की अविच्छिन्नता अपने आपमें एक ऐतिहासिक मूल्य है ।