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दिगम्बर जैन साधु
[ ६०७ मन अखण्ड ब्रह्मचर्य का संकल्प कर मां की कोख को गौरवान्वित किया । कला के क्षेत्र में सिद्धान्त कौमुदी सहित संस्कृत की परीक्षाओं तथा कढाई-सिलाई की कलाओं में पारंगत हो प्रथम श्रेणी में उत्तीर्णता उपलब्ध की।
जैन धर्म की प्रारम्भिक शिक्षा प्राप्त कर सम्पूर्ण जैन वाङमय का स्वयं मंथन किया। साथसाथ जिनेन्द्रजी के प्रवचनों का संकलन करती। तत्पश्चात् अपनी सुध-बुध खोकर वृहद् जैनेन्द्र सिद्धान्त कोष के सम्पादन में जुट गयी। जिनेन्द्रजी ने कहा कि 'मैं अनुभव करता हूँ कि भगवान ने इस बृहद् ग्रन्थ निर्माण के अर्थ ही इस देवी को भेजा है । इसको पाकर मैं अपने को धन्य मानता हूं।" वे सो जाते, कभी कभी बीच में उठकर देखते कि यह देवी बैठी लेखन में तल्लीन है । मानों इसने संकल्प किया था, ग्रन्थ पूरा होने पर ही मैं चैन लूगी । अनवरत कार्य से अस्वस्थ होने पर भी लेखन में शिथिलता न आई । तव श्री जिनेन्द्रजी ने जिनवाणी व जिनदेव के समक्ष ग्रन्थ के लेखन का सम्पूर्ण श्रेय इस देवी को देने का संकल्प किया । जबकि यह साधिका तो मात्र देव-शास्त्र व गुरु की भक्ति को ही अपना सर्वस्व समझती रही थी। आप द्वारा लिखित पुस्तकें :
अनुभव लहरी, हम कैसे जियें, अपनी ओर, विन्दु से सागर, अन्तर्यात्रा के सूत्र, राह के पत्थर को सीढी वनाइये, हृदय के पट खोल, पत्थर में भगवान, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश के बहु भाग, जैन सिद्धान्त सूत्र, जैन दर्शन दीपिका, कौशल उवाच, धर्म दश पैडि चढिके, परतों के पार, मुक्ति के ये क्षण, आध्यात्मिक सांप सीढी, अर्हत् सूत्र, मंत्रानुशासन, अक्षर साधना, प्रेम पियष, आत्म जागरण, प्रयोग साधना. विश्व के आधार धर्म, WAY TO HAPPINESS.
ब्र० लाडमलजी वर्णी
श्री ब्रह्मचारी लाडमलजी भौंसा राजस्थान में प्रतिष्ठित सम्मान्य ब्रह्मचारी हैं। आप मूल रूप से चौरू ( जयपुर ) के रहने वाले हैं । चौरू जयपुर से दक्षिण की ओर फागी-मौजमाबाद के पास है। आपके पिता का नाम स्वरूपचन्दजी था। आप दि० जैन खण्डेलवाल जाति के रत्नस्वरूप हैं। अापका जन्म माघ शुक्ला २ विक्रम संवत् १९६२ को हुआ।